Thursday, June 17, 2021

धरतीपुत्र श्याम सुन्दर को लैंड फोर लाइफ अवॉर्ड

 "लैंड फॉर लाइफ" पुरस्कार 2021

                   प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी

                श्री डूंगर महाविद्यालय, बीकानेर

           राजस्थान का गौरव...... पर्यावरण पुरोधा 

" रुख़ साट  सिर कटे तो सस्तों जानिए" ( एक वृक्ष के बदले सिर कटना भी सस्ता हैं ) हैं कि परम्परा को आगे बढ़ाते हुए 



          पृथ्वी के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन  UNCCD द्वारा दिया जाने  वाला सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है लैंड फॉर लाइफ पुरस्कार...जो कि प्रत्येक दो वर्ष में एक बार किसी व्यक्ति या संस्था को दिया जाता है।


       दुनिया भर के टॉप 12 लोगों को इस पुरस्कार के लिए फाइनलिस्ट घोषित किया गया था जिसमें भारत से 2 शख्सियत शामिल थे....एक ईशा फाउंडेशन के संस्थापक सद्गुरु जो रैली फॉर रिवर व अन्य गतिविधियों के जरिए पृथ्वी के संरक्षण में संलग्न थे ... वहीं दूसरी ओर बीकानेर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी जो पर्यावरण वानिकी के लिए समर्पित व्यक्तित्व थे...!!


         ‌आज मध्य अमेरिकी देश कोस्टारिका में आयोजित कार्यक्रम में प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी को इस पुरस्कार के लिए चुना गया जो निश्चित रूप से हरेक भारतीय के लिए गौरव का विषय है और विशेष रूप से किसान परिवार से आते लोगों के लिए क्यों कि प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी एक किसान परिवार से आते जमीनी जुड़ाव लिए आसमानी ऊंचाईयों तक दस्तक देने वाली शख्सियत हैं ...!!


        बीकानेर विश्वविद्यालय के श्री डूंगर महाविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी विगत 18 वर्षों से अनवरत रूप से बीकानेर के धोरों वाली मरूभूमि को हरित भूमि में तब्दील करने के लिए समर्पित होकर कार्य कर रहे हैं 4000 छोटे बड़े पेड़ों से घिरा श्री डूंगर महाविद्यालय का परिसर वनस्पति विज्ञान के अध्ययन के लिए तो एक बोटेनिकल गार्डन बन ही चुका है वहीं इनकी चाह में छात्र-छात्राओं सहित हजारों पंछी शुकून की सांस ले रहे हैं... ज्ञातव्य रहे कि प्रोफेसर साहब को वर्ष 2012 में राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी से भी प्रकृति संरक्षण और संवर्धन के लिए पुरस्कृत किया जा चुका है ..!!


           पर्यावरण पाठशाला के रूप में आपकी प्रकृति को समर्पित चेतना ने हजारों लोगों को इस मिशन से जोड़ दिया है जिसका परिणाम यह रहा कि विगत 18 सालों में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से करीब 25 लाख पौधे बीकानेर जिले सहित सम्पूर्ण राजस्थान में लगाए जा चुके हैं जो निश्चित रूप से सराहनीय और अनुकरणीय उदाहरण हैं।।


    स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल परम्परागत और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए जल के किफायती उपयोग से पौधे को पेड़ में बदलने तक की सम्पूर्ण जिम्मेदारी लेने वाले आपके छात्रों से लेकर सामाजिक संगठनों व शैक्षणिक संस्थानों व संगठनों ने क्रांतिकारी परिवर्तन किया है जिसकी परिणति है कि आपके मार्गदर्शक आदरणीय प्रोफेसर साहब को वैश्विक पटल पर पहचान मिली है जो किसान परिवार से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय तथा जिले से लेकर राज्य और देश का गौरव बढ़ाया है...!!


      संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा भूमि संरक्षण और मिट्टी की सेहत की बहाली के लिए समर्पित इन कदमों को तो सम्मान दिया ही है ...प्रकृति और मानव के बीच प्रगाढ़ अंतर्संबंध के रूप में पर्यावरण संरक्षण हेतु नवाचारों को मान्यता दी गयी है और प्रेरणा दी है कि बदलती दुनिया में हमें प्रकृति को संवारना है ताकि आगामी पीढ़ियां शुकून की सांस ले सकें...!!


          ज्ञातव्य रहे कि प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी को अगस्त माह में चीन में इस पुरस्कार से नवाजा जाएगा साथ ही अगले साल होने वाले COP यानी  कांफ्रेंस ऑन पार्टिज में शामिल होने व पर्यावरण संरक्षण पर संबोधित करने का अवसर मिलेगा जो कि दुनिया का सबसे बड़ा सम्मेलन होता है वैश्विक नेतृत्वकर्ता एकत्र होते हैं और वैश्विक पर्यावरण चिंतन होता है.!!


      प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी अगले दो साल तक UNO के संगठन UNCCD के ब्रांड एम्बेसडर के रूप में वैश्विक स्तर पर अपने पर्यावरण संरक्षण व संवर्द्धन के साथ भूमि संरक्षक के रूप में प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में नेतृत्व करेंगे...!!


आपके "हरित प्रणाम" को सम्मान मिला है हजारों हजार लोगों की दुआएं वैश्विक पटल पर चिन्हित हुई है..... प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी जी आपकी पर्यावरण पाठशाला का हरेक पर्यावरण संरक्षण व संवर्द्धन को समर्पित शिक्षार्थी अपने नेतृत्वकर्ता की तपस्या और त्याग से प्रेरित है और आपको यह विश्वास दिला सकते हैं कि आपके मरूभूमि को हरित भूमि में तब्दील करने का मिशन उत्कर्ष पर पहुंचेगा..!!

             

  प्रोफेसर साहब के नक्शे कदम चलने वाले ज्ञात अज्ञात पर्यावरण संरक्षण व संवर्द्धन के नुमाइंदों को हरित प्रणाम..!!


 "हरित प्रणाम" ..

         ..प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी सर 🤗


Monday, June 14, 2021

कॉमरेड चे ग्वेरा,

 चे ग्वेरा: महान नायक, क्रांतिकारी और किंवदंती

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हनुमान जी इसरण की एफबी वाल से 


जन्म: 14 जून 1928

वीरगति: 9 अक्टूबर 1967 ( उम्र 39 वर्ष )


पूरा नाम: अर्नेस्टो राफेल ग्वेरा डी सेरना 

Ernesto Che Guevara

उप नाम : चे


हाथ में बड़ा- सा सिगार, बिखरे हुए बाल, सिर पर टोपी, फौजी वर्दी-- चे ग्वेरा का यह हुलिया युवा क्रांतिकारियों को लुभाता रहा है. जिस तरह से वे जिए और जैसे मरे उसने उन्हें पूरी दुनिया में ‘सत्ताविरोधी संघर्ष’ का प्रतीक बना दिया है.


चे एक डॉक्टर, लेखक, गुरिल्ला नेता, सामरिक सिद्धांतकार और कूटनीतिज्ञ भी थे, जिन्होंने दक्षिणी अमरीका के कई राष्ट्रों में क्रांति का बिगुल बजाकर उन्हें स्वतंत्र बनाने का प्रयास किया. उनमें बुद्धि और साहस का अनूठा मेल था. डॉक्टरी की पढ़ाई और फिर डॉक्टर का पेशा अपनाने के बाद चे पूरे लातिनी अमरीका में घूमे. इस दौरान पूरे महाद्वीप में व्याप्त गरीबी ने इन्हें हिला कर रख दिया. इन्होंने निष्कर्ष निकाला कि इस गरीबी और आर्थिक विषमता के मुख्य कारण है एकाधिकार पूंजीवाद, नव उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद, जिनसे छुटकारा पाने का एकमात्र तरीका है - विश्व क्रांति.


बचपन

अर्नेस्तो ग्वेरा का जन्म अर्जेंटीना के रोसारियो नामक स्थान पर एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था. पिता थे अर्नेस्टो ग्वेरा लिंच. मां का नाम था सीलिया दे ला सेरना ये लोसा. बचपन में ही दमा Asthma ) रोग से ग्रसित होने की वज़ह से इस बालक के लिए नियमित रूप से स्कूल जाना संभव नहीं था. घर पर उसकी मां ने उसे प्रारंभिक शिक्षा दी. पिता ने उसको सिखाया कि किस प्रकार दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर शारीरिक दुर्बलता पर विजय पाना संभव है और यह भी कि इरादे मजबूत हों तो कैसे बड़े संकल्प आसानी से साधे जा सकते हैं.


पढ़ाकू बालक

पुस्तकें पढ़ने की रूचि इस बालक में किशोरावस्था से ही बलवती थी.14 वर्ष की उम्र तक उसने सिगमंड फ्रायड, एलेग्जेंडर ड्यूमा, रॉबर्ट फ्रॉस्ट, जूलियस बर्ने आदि की पुस्तकें पढ़ ली थीं. एडवेंचर से संबंधित साहित्य पढ़ने में उसको विशेष आनंद की अनुभूति होती थी. उसने रूसो, कार्ल मार्क्स, पाब्लो नेरुदा, फ्रेड्रिको गार्सिया, अनातोले फ्रांस व अन्य कई क्रांतिकारी लेखकों की रचनाएं पढ़ ली थीं. उसकी बौद्धिक समृद्धि का स्रोत यही था. 


क्रांतिकारी विचारधारा से ओतप्रोत परिवार में पले- बढ़े अर्नेस्टो ग्वेरा को बचपन से ही गरीबों के प्रति हमदर्दी का संस्कार मिला. यों समझ लीजिए कि तीन चीजें उसे उपहार में प्राप्त हुईं. पहली उसका उग्र, जिद्दी और चंचल स्वभाव, दूसरा दमा रोग और तीसरी उत्कट जिजीविषा. मां सीलिया स्त्री-स्वातंत्र्य और समाजवादी विचारधारा की समर्थक थी. अर्नेस्टो ने अपने पिता से विद्रोही स्वर विरासत में लिया और मां से समाजवादी, स्त्री-स्वातंत्र्यवादी प्रेरणाएं. मौत से संघर्ष की प्रेरणा उसको अपनी ही जिंदगी से मिली थी. लगभग हर रोज दमे का दौरा, हर रोज मौत की ललकार सुनना, अपनी जीवटता जीवट के बल पर मौत को पछाड़ना. लगता है कि छापामार युद्ध का प्रारंभिक प्रशिक्षण उसको मौत से मिला. 


A doctor- turned- revolutionary 


अर्नेस्तो चे ग्वेरा एक चिकित्सक से क्रांतिकारी बने थे. एक ज़ुनूनी क्रांतिकारी, गुरिल्ला नेता, लेखक और कूटनीतिज्ञ-- चे ये सब थे. विश्व के जिन गिने-चुने देशों में साम्यवाद आज भी अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए है, उनमें चीन, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया के अलावा क्यूबा का नाम आता है. 

26 जुलाई 1953 से दिसंबर 1956 तक चली क्यूबा जनक्रांति ने तानाशाह सम्राट फल्जेंसियो बतिस्ता को पदच्युत कर, फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में जनवादी सरकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त हुई. उसके बाद सन 1961 में क्यूबा एक साम्यवादी देश बन सका. क्यूबा क्रांति में फिदेल ने एक वीर और दूरदर्शी सेनापति की भूमिका निभाई थी. लेकिन क्यूबा समेत पूरे लातीनी अमेरिकी देशों में जनक्रांति का वातावरण तैयार करने, सेनापति कास्त्रो के कंधे से कंधा मिलाकर अग्रणी भूमिका निभाने, बाद में आमजन की अपेक्षा के अनुरूप परिवर्तनों को गति देने का जो अनूठा कार्य अर्नेस्तो चे ग्वेरा ने किया, उसका उदाहरण दुनिया में दुर्लभ है. 


अर्जेंटीना में जन्मे क्यूबा के क्रांतिकारी नेता अर्नेस्तो ग्वेरा एक प्रतीक थे व्यवस्था के खिलाफ युवाओं के गुस्से का और आदर्शों की लड़ाई का. एक महान क्रांतिकारी के रूप में जो स्थान सरदार भगतसिंह का भारत और भारतीय उपमहाद्वीप में है ,वही स्थान चेग्वेरा का लैटिन अमेरिका सहित कई देशों में है.


यात्राओं से बदला जीवन


अर्नेस्तो ग्वेरा की असल ज़िंदगी वहां से शुरू होती है जब उन्होंने अपने दोस्त, अल्बेर्तो ग्रेनादो के साथ दक्षिण अमेरिका को जानने के लिए तकरीबन दस हज़ार किलोमीटर की यात्रा की. तब उनकी उम्र तकरीबन 23 साल थी. मोटरसाइकल पर की गई यही यात्रा उनकी जिंदगी का वह महत्वपूर्ण पड़ाव थी जिसने उन्हें हमेशा के लिए बदल दिया. इस दौरान उन्होंने दक्षिण अमेरिका के लोगों को जिंदा रहने के लिए विषम परिस्थितियों से जूझते हुए देखा. उन्होंने देखा कि कैसे पूंजीवाद ने लोगों को अपने अस्तित्व से अलग कर दिया था. कैसे खदानों में काम करने वाले मजदूरों का शोषण किया जा रहा था. 


लैटिन अमेरिका की यात्रा के दौरान अर्नेस्तो ग्वेरा का भूख, गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी से सीधा साक्षात हुआ. यात्रा में उसने गरीबी का ऐसा रौद्र रूप देखा कि उसे पेशे से अपना डॉक्टर होना निरर्थक लगने लगा.


अर्नेस्तो ग्वेरा के जीवन में यात्रा बहुत परिवर्तनकारी सिद्ध हुई. उससे पहले तक वह शहरी जीवन में पला-बढ़ा था. गांव और गरीबी उसने देखी नहीं थी. मोटरसाइकिल की यात्रा से वह ग्रामीण जीवन की असलियत से रूबरू हुआ. उसने देखा कि किस तरह ग्रामीण मजदूरों के परिश्रम से बड़े भूमिपति उत्तरोत्तर धनवान एवं शक्तिशाली बनते जा रहे हैं. यह भी देखा कि लातिनी अमेरिका दो भागों में बंटा हुआ है. एक छोर पर संपत्ति और संसाधनों पर कब्जा जमाए यूरोपीय मूल के जमीदार, उद्योगपति, सरमायेदार, और व्यापारी हैं. दूसरी तरफ मूल लातिनी मजदूरों के वंशज हैं, जिन्हें दिन-रात परिश्रम करने पर भी भरपेट भोजन नहीं मिल पाता. पहली बार उसने समाज का उत्पीड़क और उत्पीड़ित में साफ-साफ विभाजन देखा. मार्क्स की कही बातें अब उसे समझ में आ चुकी थीं. इसी बीच उसने रूसी क्रांति का भी अध्ययन किया.


यात्रा के दौरान अर्नेस्तो ग्वेरा ने देखा कि मजदूर माता- पिता अपनी बीमार संतान को मरते- तड़पते देखने को सिर्फ इस कारण विवश हैं क्योंकि उनके पास डॉक्टर की फीस चुकाने और इलाज के लिए पैसे नहीं हैं. अभावग्रस्तता को उन्होंने अपनी नियति, जिंदगी का स्वाभाविक हिस्सा मान लिया है. क्या डॉक्टर के रूप में वह उनकी कुछ मदद कर सकता है? श्रमिक परिवारों के दुर्दशा देख अर्नेस्तो ग्वेरा अपने आप से प्रश्न करता. उसका अंतर्मन तत्काल उसे उत्तर देता कि-- 'नहीं, इनकी समस्या केवल रोगों का उपचार कर देने से दूर होने वाली नहीं है. वास्तविक समस्या इनके उत्पीड़न में छुपी है. रोग का वास्तविक कारण उनकी गरीबी और वह भयावह आर्थिक असमानता है जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के कारण जन्मी है.'


अर्नेस्तो ग्वेरा जानकर क्षुब्ध था कि अपनी जमीन, अपना देश होने के बावजूद वहां अमेरिकी कंपनियों शासन और प्रशासन पर हावी हैं. कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें पेट -भर भोजन नसीब नहीं होता. सरकार भी उत्पीड़न में विदेशी कंपनियों का साथ देती है. यह यात्रा डॉक्टर अर्नेस्टो के "क्रांतिकारी चे ग्वेरा" में बदलने की यात्रा थी.


लैटिन अमेरिका की यात्रा के दौरान अर्नेस्तो ग्वेरा की आंखों ने जो देखा वो दिल पर गहरा प्रहार करने लगा. वह जान चुका था कि लैटिन अमेरिका के हालात सिर्फ़ और सिर्फ़ गरीबी के कारण बिगड़े हैं. साम्राज्यवाद और पूंजीवाद ने जिस तरह से पूरे महाद्विप को जकड़ रखा है उससे मुक्ति का एक ही तरीका है क्रांति... विश्व क्रांति...


ग्वेरा ने इस पूरे वृतांत को ‘मोटरसाइकिल डायरीज’ नाम से संस्मरण में कलमबद्ध किया है. इसके अंत में उन्होंने ग़रीब और हाशिये पर धकेले जा चुके लोगों के लिए जीवनभर लड़ने की कसम भी उठाई थी.


1953 में ग्वेरा अपने शहर ब्यूनस आयर्स लौट आए. अप्रेल 1953 में उसकी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी हो गई और वह डॉ एर्नेस्तो ग्वेरा बन गया. लेकिन उनका इरादा डॉक्टरी का पेशा अपनाने का नहीं था. वे पहले ही दुनिया और समाज को बदलने की कसम खा चुके थे. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक बड़ी जंग लड़नी थी. यह जंग पूंजीवाद के ख़िलाफ़ थी जो अमेरिकी समाज का आधार था. 


ग्वेरा जिस व्यवस्था के प्रशंसक थे, कुछ-कुछ वैसी ही व्यवस्था पड़ोसी देश ग्वाटेमाला में तैयार हो रही थी. उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद निश्चय किया कि वे वहां जाकर इस व्यवस्था को करीब से देखेंगे. ग्वाटेमाला में तब समाजवादी सरकार हुआ करती थी और जहां राष्ट्रपति जैकब अर्बेंज गुजमान बड़े पैमाने पर भूमि सुधार कार्यक्रम लागू कर रहे थे. इन कार्यक्रमों का शिकार अमेरिका की एक बड़ी कंपनी – यूनाइटेड फ्रूट कंपनी भी हुई जिसके पास वहां लाखों एकड़ जमीन थी. इन कार्यक्रमों से अमेरिका के और भी कारोबारी हित प्रभावित हो रहे थे तो आखिरकार अमेरिकी सरकार ने यहां गुजमान सरकार का तख्ता पलट करवा दिया. ग्वेरा उस समय ग्वाटेमाला में ही थे और गुजमान का समर्थन कर रहे थे. लेकिन तख्तापलट के बाद वे मैक्सिको आ गए.


फिदेल कास्त्रो से मुलाकात

ग्वाटेमाला में सरकार के तख्तापलट ने ग्वेरा के मन में क्रांति की आग और अमेरिका विरोध को और अधिक भड़का दिया. लेकिन वे तुरंत कुछ करने की स्थिति में नहीं थे इसलिए मैक्सिको पहुंचकर उन्होंने वहाँ एक अस्पताल में डॉक्टर की नौकरी जॉइन कर ली . इसी दौरान उनकी मुलाकात क्यूबा से निर्वासित नेता फिदेल कास्त्रो और उनके भाई राउल कास्त्रो से हुई. अर्नेस्तो ग्वेरा की उम्र उस समय 27 साल की थी. इस मुलाकात के बाद ग्वेरा के लिए आगे का रास्ता बिलकुल स्पष्ट हो गया था. उन्होंने तय कर लिया था कि अब उनका लक्ष्य क्यूबा की अमेरिका समर्थित तानाशाही सरकार को हटाना है. इसके बाद वे फिदेल के साथ क्यूबा की क्रांति के अगुवा नेता बन गए. डॉक्टर से क्रांतिकारी बने चे ग्वेरा क्यूबा की क्रांति के नायक फिदेल कास्त्रो के सबसे भरोसेमंद साथियों में से एक थे. फिदेल व चे ग्वेरा ने सिर्फ 100 गोरिल्ला लड़ाकों के साथ मिलकर अमेरिका समर्थित तानाशाह बतिस्ता की सत्ता को सन 1959 में उखाड़ फेंका था.


चे का अर्थ

क्यूबा की क्रांति के दौरान ग्वेरा की दिलेरी ने क्रांतिकारियों के ज़ेहन पर गहरी छाप छोड़ी थी. इसी संघर्ष ने उन्हें एर्नेस्तो ग्वेरा से चे ग्वेरा बना दिया. स्पेनिश में 'चे' का मतलब होता है- दोस्त , भाई, सखा आदि. उसके चाहने वाले उसको केवल ‘चे’ नाम से पुकारते थे. अपनापन जताने के लिए बोले जाने वाले इस नन्हे से शब्द का अर्थ है—‘हमारा’, 'हमारा अपना'. अत्यंत घनिष्टता और आत्मीयता से भरा है यह संबोधन. अपने साथियों में चे इसी नाम से ख्यात था. 


31 वर्ष की उम्र में चे को फिदेल ने राष्ट्रीय बैंक का अध्यक्ष और देश का उद्योग मंत्री बना दिया, लेकिन वो राजधानी में बैठकर काम नहीं करना चाहता था. स्वभाव से क्रांतिकारी होने के कारण वह दूसरे देशों में ज़मीनी स्तर पर जाकर पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ़ आंदोलन को और मजबूत करने का काम करने लगा.


समाजार्थिक सुधार


चे ने क्यूबा में समाजार्थिक सुधारों की शुरुआत की, जो क्रांति का वास्तविक लक्ष्य था. क्यूबा की सत्ता पर काबिज़ होने के उसने सामाजिक न्याय कायम करने को प्राथमिकता प्रदान करते हुए 17 मई 1959 को चे ने कृषि सुधार नियम’ लागू किया, जिसमें समस्त कृषि भूमि को बड़े कृषि फार्मों में बांटने का आदेश जारी किया गया था. प्रत्येक कृषिफार्म का क्षेत्रफल 1000 एकड़, लगभग 4 वर्ग किलोमीटर था. जिसके पास भी इससे अधिक कृषिभूमि थी, उसका अधिग्रहण कर उसको लगभग 67 एकड़ के कृषि भूखंडों में बांट दिया गया था. एक और कानून यह भी बनाया कि चीनी ( Sugar ) के लिए की जाने वाली खेती में विदेशियों की भागीदारी पर प्रतिबंध लगाया गया. आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिए चे द्वारा उठाए गए कदमों का आम जनता ने खुलकर स्वागत किया. 


चे का समाजवादी राज्य का सपना केवल क्यूबा तक सीमित नहीं था. वह पूरे लातीनी अमेरिका के साथ बाकी विश्व को भी साम्राज्यवादी अमेरिका की कुटिल चालों से दूर रखना चाहता था. 12 जून, 1959 को वह तीन महीने की विदेश यात्रा के लिए रवाना हुआ. इस बार उसका पड़ाव मोरेक्को, सुडान, सीरिया, यूनान, पाकिस्तान, थाइलेंड, यूगोस्लाविया, ग्रीक, जापान आदि देश बने. यात्रा से पहले उसको विदा करने फिदेल कास्त्रो स्वयं हवाई अड्डे पर पहुंचे.


सितंबर, 1959 में चे को क्यूबा वापस लौटना पड़ा. फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा की सरकार भूमि सुधारों को तेजी से लागू करने का प्रयास कर रही थी. चे को सूचना मिली कि नई भू-अधिग्रहण नीति से नाराज होकर जमींदार भू-वितरण की प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं. विद्रोहियों को पड़ोस के गैर साम्यवादी देशों सहित अमेरिका का भी समर्थन प्राप्त था. कास्त्रो ने विरोधियों को कुचलने तथा भूमि-सुधारों को सख्ती से लागू करने का दायित्व चे को सौंप दिया. कानून के क्रियान्वयन के लिए ‘राष्ट्रीय भूमि सुधार संस्था’ का गठन किया गया. चे उसका प्रमुख कर्ता-धर्ता मनोनीत हुआ. उसको उद्योगमंत्री का पद दिया गया. विद्रोही जमींदारों के दमन तथा भूमि सुधार कार्यक्रम को गति देने के लिए चे ने एक नए सैन्य दल का गठन किया. परिवर्तन के लिए उत्साही युवा तेजी से उस दल में भर्ती होने लगे. बहुत जल्दी उसके सैनिकों की संख्या एक लाख तक पहुंच गई. ‘राष्ट्रीय भूमि सुधार दल’ के सैनिकों से पहले तो उपद्रवी नेताओं, जमींदारों को सख्ती से कुचलने का काम लिया गया. फिर उन्हें जरूरतमंदों के बीच भूमि के बंटवारे का काम भी सौंप दिया गया. क्यूबा में हजारों हेक्टेयर कृषि-भूमि पर अमेरिका की पूंजीवादी कंपनियों का अधिकार था. उनके कब्जे से 4,80,000 एकड़ भूमि मुक्त कराई गई. इससे नाराज होकर अमेरिका ने क्यूबा से चीनी आयात पर प्रतिबंध लगा दिया. चीनी उद्योग क्यूबाई अर्थव्यवस्था की रीढ़ था. अमेरिका को विश्वास था कि इस कदम से क्यूबा सरकार का हौसला पस्त हो जाएगा. लेकिन चे जैसे जनक्रांति से उभरे नेता ने अमेरिकी धौंसपट्टी का डटकर मुकाबला किया . 


क्यूबा के पुनर्निर्माण के लिए चे एक ओर तो भूमि-सुधार के क्षेत्र में मजबूत पहल कर रहा था, दूसरा मोर्चा उसने शिक्षा के क्षेत्र को बनाया हुआ था. शिक्षकों की कमी और सरकारी उदासीनता के चलते किसानों और मजदूरों का बड़ा वर्ग अशिक्षित था. जिसके अभाव में अमेरिकी कंपनियां उनका आर्थिक शोषण करती थीं. शिक्षा की महत्ता को समझते हुए चे ने उसके प्रसार के लिए 1961 को शिक्षा-वर्ष घोषित किया. अपने कार्यक्रम को विस्तार देते हुए उसने एक लाख वालंटियर्स के साथ ‘साक्षरता दल’ का गठन किया. इस दल के सदस्यों को नए स्कूल भवनों के निर्माण तथा प्रशिक्षित शिक्षक तैयार करने का दायित्व सौंपा गया. इसके अलावा ‘साक्षरता दल’ के सदस्य आदिवासी किसानों को पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी भी उठाते थे. आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की तरह ही चे ग्वेरा के ‘क्यूबाई साक्षरता अभियान’ को भी अप्रत्याशित सफलता मिली. इस अभियान के अंतर्गत सात लाख सात हजार दो सौ बारह प्रौढ़ों ( adults ) को साक्षर बनाने के साथ ही साक्षरता अनुपात को 96 प्रतिशत पहुंचा दिया गया. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने का काम भी चे ने किया. शिक्षा को जनोन्मुखी बनाने के लिए उसने सभी विश्वविद्यालयों से सकारात्मक सोच अपनाने का आवाह्न किया. ‘यूनीवर्सिटी आॅफ लास विलाज’ में जमा हुए क्यूबा के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों के शिक्षाशास्त्रियों, कुलपतियों को संबोधित करते हुए उसने कहा कि अभी कुछ दिन पहले तक शिक्षा पर सफेदपोश अभिजन ( elites ) का वर्चस्व था. समय आ चुका है, अब हमें अपनी शिक्षानीति बदलनी होगी:


‘हमारी अगली चुनौती धूल-धूसरित किसानों, मजदूरों, कामगारों को शिक्षित करना है. यदि हम इस काम में चूक करते हैं तो कुपित जनता आपके दरवाजे तोड़कर भीतर चली आएगी और आपके विश्वविद्यालयों को ऐसे रंग से रंग देगी, जैसा वह पसंद करती है.’


अनूठा क्रांतियौद्धा


चे के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता उसके निजी सुख, वैभव-विलास से कहीं बढ़कर थी. वह कार्ल मार्क्स की इस अवधारणा का समर्थक था कि मजदूर का कोई देश नहीं होता और समाजवाद की सफलता किसी एक राष्ट्र की सीमा में बंधे हुए संभव नहीं है. इसलिए क्यूबा में कामयाबी के बाद भी उसने सत्ता से अपनी निलिप्र्तिता को बनाए रखा. वह स्वयं को एक छापामार योद्धा या अधिक से अधिक छापामार दल का सेनापति मानता था. इसलिए जब भी उसको अवसर मिला, औपनिवेशिक शोषण के शिकार रहे देशों में समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयास करता रहा. 1965 में वह कांगो की यात्रा पर निकल गया. उसको लगता था कि अफ्रीका की कमजोर राजसत्ता के चलते वहां क्रांति की नई इबारत लिख पाना संभव है. उसका इरादा विरोधियों को छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देकर वहां क्रांति का शंखनाद करना था. किंतु अफ्रीका की जलवायु उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकर सिद्ध हुई. वहां पहुंचते ही उसका दमा रोग बिगड़ गया. क्रांति की संभावनाओं की खोज के लिए चे ने नकली दस्तावेज के आधार पर पूरे यूरोप, उत्तरी अमेरिका आदि देशों की गोपनीय यात्राएं भी कीं. 1966 के आरंभिक महीने चे ने लगभग अज्ञातवास में बिताए. किसी को उसके बारे में कोई जानकारी न थी. हालांकि इस अवधि में वह क्रांति की संभावनाएं तलाश रहे विद्रोहियों से मुलाकातें भी की परंतु वे मुलाकातें सर्वथा गोपनीय थीं.


बोलविया में अंतिम संघर्ष

चे को रोमांच में आनंद आता था. 1966 में उसने अपनी पहचान छिपाने के लिए अपने हुलिया में ही बदलाव कर लिया था. अपनी सदाबहार ढाढ़ी-मूंछ, जिससे वह दुनिया के युवाओं की धड़कन बन चुका था, उसे उसने एक झटके में मुंडवा ली. 3 नवंबर, 1966 को वह छिपते-छिपाते बोलेविया पहुंच गया. यह यात्रा उसने अडोल्फ मेना गोंजलज के नाम से एक व्यापारी के रूप में की थी. उसका इरादा वहां पर एक छापामार दल का गठन करने का था. चे को अपने बीच पाकर बोलेविया के साम्राज्य-विरोधी संगठनों में नई जान आ गई. उनके साथ मिलकर चे ने ‘नेशनल लिबरेशन आर्मी आॅफ दि बोलेविया’ का गठन किया, जिसके सदस्यों की संख्या कुछ ही अवधि में पचास तक पहुंच गई. कुछ ही महीनों में उस संगठन ने गुरिल्ला लड़ाई के लिए आवश्यक सभी हथियार जुटा लिए. बोलेविया के सैन्य टुकड़ियों को कई मोर्चों पर छकाकर चे ने वहां अपनी उपस्थिति दर्ज भी करा दी थी. इससे बोलेविया सरकार सतर्क हो गई. उसने छापामार दल पर काबू पाने के लिए अपनी सेना झोंक दी. अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी के दल ने बोलेविया के जंगलों में घेरा डाला हुआ था. 


बोलेविया में चे को न केवल पराजय का सामना करना पड़ा, बल्कि वह उसके जीवन का अंतिम अभियान भी सिद्ध हुआ. 8 अक्टूबर 1967 को चे को विशेष सैन्यबल ने एक गुप्तचर की ओर से उनके ठिकाने की खबर के आधार पर घेर कर अपने चंगुल में ले लिया।अगले ही सुबह बोलेविया के निरंकुश राष्ट्रपति रेने बेरिनटोस ने चे को मृत्युदंड का आदेश सुना दिया. 

मृत्युदंड दिए जाने से कुछ ही क्षण पहले बोलेविया के सैनिक ने उपहास वाले अंदाज में चे से प्रश्न किया था—‘क्या तुम सोचते हो कि लोग तुम्हें हमेशा याद रखेंगे?’ कठिन से लगने वाले इस प्रश्न का उत्तर चे ने तत्काल दिया—‘नहीं, मैं बस क्रांति की अमरता के बारे में सोचता हूं.’ कुछ देर बाद सार्जेंट टेरेन वहां पहुंचा. उसको देखते ही चे की आंखों में आक्रोश झलकने लगा. वह जोर से चिल्लाया—‘मैं जानता हूं, तू मुझे मारने आया है. गोली चला, कायर!’ उसने बोलेविया के सैनिकों को सुनाते हुए आगे कहा—‘यह समझ लो कि तुम सिर्फ एक आदमी को मारने जा रहे हो, पर उसके विचारों को नहीं मार सकते….क्रांति अमर है.’ 


चे के उकसाने पर टेरेन नाराज हो गया. उसने अपनी रायफल से तत्काल गोली दाग दी. चे जमीन पर गिर पड़ा. चीख को दबाने के लिए उसने अपने दांत कलाई में गढ़ा दिए. गुस्साया टेरेन ने गुस्से से तमतमा कर चे पर लगातार गोलियां दागता रहा. कुल मिलाकर उसने नौ गोलियां दागीं, जिनमें से पांच उसकी टांगों में, एक कंधे, एक छाती पर लगी. आखिरी गोली जिसने चे का प्राणांत किया, वह उसके गले को चीरती हुई निकली थी. एक विलक्षण छापामार योद्धा, मनुष्यता का परमहितैषी, समाजवादी चे वहीं शहीद हो गया. उसने जो रास्ता चुना था, उसकी अंततः यही परिणति थी. इसका पूर्वानुमान भी उसे था. इसलिए अपने लिए समाधिलेख की परिकल्पना उसने मृत्यु से बहुत पहले कर ली थी. एशियाई, अफ्रीकी एवं लातीनी अमेरिकी देशों की त्रीमहाद्वीपीय बैठक में उसने कहा था—

‘मौत जब भी हमें गले लगाए, उसका स्वागत खुले मन से हो. बशर्ते, हमारा समरघोष उन कानों तक पहुंचे जिन तक हम पहुंचाना चाहते हैं; जबकि हमारा दूसरा हाथ हथियारों को सहला रहा हो.’


चे को मृत्युदंड दिए जाने की सूचना जैसे ही क्यूबा पहुंची वहां शोक की लहर छा गई. राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने तीन दिन के शोक की घोषणा कर दी. 18 अक्टूबर को लाखों की भीड़ को संबोधित करते हुए कास्त्रो ने कहा था:


‘यदि कोई हमसे पूछे कि आगामी पीढ़ी के रूप में हम कैसे मनुष्यों की कामना करते हैं, तब हमें निस्संकोच कहना चाहिए: उन्हें चे की भांति होना चाहिए….यदि हमसे कोई पूछे कि हमारे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा कैसी हो? इस पर बगैर किसी संकोच के हमें उत्तर देना चाहिए: हम उन्हें खुशी-खुशी चे की भावनाओं से ओत-प्रौत करना चाहेंगे….यदि कोई हमसे प्रश्न करे कि हमारे लिए भविष्य के मनुष्य का मॉडल क्या हो? तब मैं अपने दिल की गहराइयों से कहना चाहूंगा कि वह एकमात्र आदर्श पुरुष चे है, जिसके न तो चरित्र पर कोई दाग-धब्बा है, न ही कर्म पर….’


चे ने हमेशा एक प्रतिबद्ध जीवन जिया. चुनौतियों का सामना करने, प्रतिकूल स्थितियों में संघर्ष करने तथा डटे रहने की प्रेरणा उसको अपनी मां से मिली थी. शायद वह दमा रोग ही था, जिसने लगातार हमले करके चे को मृत्यु की ओर से भयमुक्त कर दिया. 


चे की बहादुरी इंसानियत के लिए थी. वह पूरे लातीनी अमेरिका को एक मानता था. उसका जन्म अर्जेंटाइना में हुआ परंतु साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष के लिए उसने अपनी पहली कर्मभूमि क्यूबा को बनाया. उसको सफलता मिली, लेकिन क्यूबा में भी साम्यवादी शासन की स्थापना के बावजूद वह रुका नहीं, जबकि फिदेल ने उसको मंत्री पद के साथ अन्य कई दायित्व सौंपे दिए थे. चाहता तो वह उसके बाद आराम की जिंदगी जी सकता था. लेकिन कार्ल मार्क्स का यह कथन कि 'साम्यवाद का संघर्ष किसी एक देश में सर्वहारा की जीत से पूरा नहीं हो जाता', ने चे के मन-मष्तिष्क में अमिट छाप छोड़ रखी थी. इसी कथन से प्रेरणा लेकर वह आजीवन संघर्ष करता रहा. अंततः एक योद्धा की भांति ही वीरगति को प्राप्त हुआ. इसलिए दुनिया में उसके करोड़ों प्रशंसक है. वह युवा पीढ़ी का ‘हीरो’, करोड़ों का प्रेरक और मार्गदर्शक है. तभी तो नेल्सन मंडेला ने चे ग्वेरा को हर उस मनुष्य का प्रेरणास्रोत बताया है, जो स्वतंत्रता को प्यार करता है और उसके लिए जीना और मरना चाहता है. 


बुद्धिजीवी योद्धा 


चे एक बुद्धिजीवी योद्धा था. जिसका दुनिया को लेकर एक सपना था और उस सपने को सच में बदलने का उसका ढंग भी दूसरों से अलग था. क्योंकि समाजवाद की स्थापना के लिए सशस्त्र संघर्ष का सहारा तो चे से पहले लेनिन, स्टालिन, ट्राटस्की, माओ आदि ले चुके थे. 1848 में ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ द्वारा श्रमिक क्रांति का आवाह्न करते समय स्वयं कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा के अधिपत्य हेतु सशस्त्र संघर्ष को उचित ठहराया था, हालांकि बाद में उसने अपनी मान्यताओं में संशोधन भी किया. समाजवादी क्रांति के लिए चे पहले भी कई विचारक, नेता स्वयं का बलिदान कर चुके थे. यदि अलग-अलग देशों में क्रांति के बाद के परिदृश्य को देखें तो संघर्ष में सफल होने के बाद लेनिन, स्टालिन, माओ आदि का संघर्ष केवल अपने देश तक सीमित था. अपने देश में साम्यवाद की स्थापना के बाद उन्होंने या तो सशस्त्र संघर्ष से विराम ले लिया था अथवा उनका बाकी संघर्ष केवल अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तक सिमटकर रह गया था. लेनिन और स्टालिन बारी-बारी से सोवियत संघ के राष्ट्र-अध्यक्ष बने. माओ ने चीन की बागडोर संभाली और आज भी उन्हें चीनी गणराज्य के पितामह का गौरव प्राप्त है. इन सभी में एक समानता है कि अपने देश में समाजवादी क्रांति की सफलता के बाद इन सभी नेताओं ने सशस्त्र संघर्ष से किनारा कर लिया था. किंतु चे एक ऐसा समर्पणशील योद्धा था कि क्यूबा सरकार में मंत्रीपद प्राप्त करने के बावजूद संघर्ष में हिस्सा लेता रहा. वह अर्जेंटीना में जन्मा. क्यूबा के साम्यवादी संघर्ष में कामयाब हुआ और बोलेविया में सामाजिक क्रांति के लिए संघर्ष करता हुआ शहीद हुआ. कार्ल मार्क्स ने कहा था कि मजदूर का कोई देश नहीं होता. चे ने अपने जीवन से सिद्ध किया कि साम्यवाद के योद्धा का भी कोई देश नहीं होता.


अर्जेंटाइना में जन्म लेने के बावजूद पूरा लातीनी अमेरिका उसकी संघर्ष भूमि रहा. क्यूबा के लिए समाजवादी आंदोलन में सफल होने के बाद भी वह रुका नहीं, बल्कि कांगो, बोलेविया आदि लातीनी अमेरिकी देशों में पूंजीवादी वर्चस्व की कमर तोड़ने की लगातार कोशिश करता रहा.


1964 में जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र की बैठक को संबोधित करते हुए चे ने कहा था कि न्याय ताकतवर लोगों के हितरक्षण का औजार बन चुका है. कानूनी दावपेंच इस वर्ग की स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने के काम आते हैं. इसी का लाभ उठाकर वह नियमों की अपने वर्गीय हितों के अनुकूल व्याख्या करता है, जिससे पूंजी का पलायन लगातार ऊपर की ओर होता चला जाता है. कला और संस्कृति जैसे लोकसिद्ध माध्यम भी इसमें सहायक बनते हैं. चे का मानना था कि पूंजीवाद ने युवाओं को भ्रमित कर ऐसी स्थितियां पैदा की हैं, जो सामान्य जन की समझ से पूरी तरह बाहर हैं. उसका मानना था कि पूंजीवादी समाज में जनसाधारण को अनुशासित-नियंत्रित करने के लिए जो नियम बनाए जाते हैं, वे जानबूझकर जटिल बनाए जाते हैं . पूंजीवाद के जटिल नियम बहुसंख्यक आमजन की समझ से परे होते हैं. पूंजीवाद यूं तो सभी के लिए समान अवसर प्रदान करने का दावा करता है, परंतु यथार्थ में विनियोजन ( disinvestment ) के बहाने जनसाधारण को धन से वंचित कर दिया जाता है. चे ने अपने एक निबंध लिखा था कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ‘पूंजीवाद बल का उपयोग करता है...जब भी सुधार की कोई संभावना बनती है, पूंजीवाद उसके विरोध के लिए (धर्म और) जातिवाद को आगे कर देता है, जिससे विकास की समस्त संभावनाएं स्वतः धराशायी हो जाती हैं.’


चे कहते थे कि क्रांतिपथ पर सफलता युवाशक्ति की मदद के बगैर संभव नहीं. फिदेल कास्त्रो को लिखे गए एक पत्र में चे ने लिखा था—‘सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध युवाशक्ति ही हमारी आशा का एकमात्र केंद्र हैं. यही वह मिट्टी है जिससे हमें अपनी अपेक्षाओं की दुनिया का निर्माण करना है. हमें अपनी उम्मीदें युवाशक्ति के मन में बिठा देनी होंगी तथा उसको अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार करना होगा. उसको यह अच्छी तरह से समझा देना होगा कि क्रांतिपथ पर आगे बढ़ने का अभिप्राय है 'जिंदगी अथवा मौत—क्रांति यदि सच्ची है तो उसमें एक ही चीज प्राप्त हो सकती है—जीत या फिर मौत!’


चे का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना करना था. वह लातीनी अमेरिकी देशों में उत्तरी अमेरिका के पूंजीवादी साम्राज्यवाद द्वारा किए जा रहे शोषण का नंगा रूप देख चुका था. ग्वाटेमाला, कांगो, क्यूबा, बोलेविया आदि देशों में उसने पूंजीवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम भी किया था. उसको उम्मीद थी कि साम्राज्यवाद से लड़ाई में बाकी देश और संगठन भी उसकी मदद को आगे आएंगे. पूंजी-आधारित साम्राज्यवाद से चे का संघर्ष किसी एक देश या राज्य की सीमा तक बंधा हुआ नहीं था, बल्कि उन सभी देशों तक विस्तृत था, जो औपनिवेशिक शोषण का शिकार थे.


भारत की यात्रा

क्यूबा सरकार के मंत्री के रूप में चे ने 1959 में भारत की यात्रा करने के बाद वहां के शासक फ़िदेल कास्त्रो को जो रिपोर्ट सौंपी थी, उसमें उन्होंने लिखा: 'हमें नेहरू ने बेशकीमती मशविरे दिए... भारत- यात्रा से हमें कई लाभदायक बातें सीखने को मिलीं। सबसे महत्वपूर्ण बात हमने यह जानी कि एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकि विकास पर निर्भर करता है और इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्थानों का निर्माण बहुत जरूरी है। मुख्य रूप से मेडिकल, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान और कृषि विज्ञान के क्षेत्र में"


मूल्यांकन

चे अपनी अच्छाइयों, कमियों, शक्तियों, कमजोरियों के साथ संपूर्णता से उस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का कोई नामोनिशान नहीं हो और ना ही इसकी कोई संभावना हो. औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति तथा जनकल्याण हेतु क्रांति की उपयोगिता को चे न केवल पहचाना, बल्कि उसके लिए आजीवन संघर्ष करता रहा. अंततः उसी के लिए अपने जीवन का बलिदान भी किया. उसकी वैचारिक निष्ठा बेमिसाल थी. बुद्धि और साहस का उसमें अनूठा मेल था. विचार के साथ-साथ उसने समरक्षेत्र में भी अनथक, अद्वितीय, वीरतापूर्ण संघर्ष किया. समाजवादी क्रांति का औचित्य सिद्ध करने के लिए वह लगातार वैचारिक लेखन करता रहा. चे एक कुशल लेखक और विचारक थे. उन्होंने युद्ध के विषय को लेकर अपनी एक पुस्तक "गुरिल्ला वारफेयर" भी लिखी.


समाजवाद और औपनिवेशिक शोषण पर चे द्वारा दिए गए भाषण आज एक वैश्विक बुद्धिसंपदा हैं. निष्पृह नेता तथा निर्भीक विचारक का गुण उसको अपने समकालीन विचारकों एवं नेताओं से अलग सिद्ध करता है. वह आदर्श क्रांतिकारी था. उसका संघर्ष किसी एक देश के लिए न होकर समूची मनुष्यता के हित में था. उसकी यही विलक्षणता उसे बीसवीं शताब्दी के विश्व के 25 महानतम व्यक्तित्वों में सम्मानित स्थान पर प्रतिष्ठित करती है. चे ग्वेरा को प्रसिद्धि फिदेल कास्त्रो से कहीं अधिक मिली. 

चे ग्वेरा की जीवनी लिखने वाले अमेरिकी पत्रकार जॉन ली एंडरसन के मुताबिक़ ‘ ग्वेरा की ख़ुद को मिटाकर क्रांति को जिंदा रखने की ज़िद ने विद्रोहियों के बीच उन्हें सबसे ऊंचा मुक़ाम दिलाया था.' प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा चे को बीसवीं शताब्दी की दुनिया-भर की पचीस सबसे लोकप्रिय प्रतिभाओं में सम्मिलित किया गया है. अन्य प्रतिभाओं में अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी, नेलसन मंडेला आदि अनेक नेता सम्मिलित हैं.


चे की सबसे बड़ी खासियत थी कि वह किसी भी विचारधारा की कमी और मजबूती को अच्छे से समझता था. वह यह भी मानता था कि हर देश की भौतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुसार शोषण के खिलाफ लड़ाई के अलग-अलग रूप हो सकते हैं. लैटिन अमेरिकी देशों में अगर समाजवाद आज भी एक बड़ी ताकत है तो चे का इसमें अहम योगदान है.


चे का सपना तो पूरी हकीकत में नही बदल पाया लेकिन उनका संघर्ष अवश्य हकीकत बन गया. उनके द्वारा किये गये संघर्ष से आज भी करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हैं. चे मार्क्सवाद को समर्पित बीसवी सदी के शायद सबसे प्रतिबद्ध विचारक-योद्धा माने जाते हैं क्योंकि चे के बाद क्रांतिकारी समाजवाद की डोर लगभग कट सी गयी है. 


एर्नेस्तो ‘चे’ गेवारा वह शख्स जो कुछ लोगों के लिए हीरो था तो कुछ के लिए हत्यारा. उस पर आरोप लगता था कि वह तीसरा विश्वयुद्ध करवाना चाहता है. अमेरिका और अमेरिकी स्पेशल फोर्सेज उसे ख़त्म करना चाहती थीं. उसके शव को रहस्यमय तरीके से किसी अनजान जगह पर दफ़नाया गया था. पर जिस व्यक्ति का नामोनिशान अमेरिका और पूंजीवादी ताक़तें मिटा देना चाहती थीं, वह आज एक किंवदंती बन चुका है.


फ्रांस के महान दार्शनिक और अस्तित्ववाद के दर्शन के प्रणेता ज्यां-पॉल सार्त्र ने ‘चे’ गेवारा को ‘अपने समय का सबसे पूर्ण पुरुष’ जैसी उपाधि दी थी. इसके पीछे गेवारा की भाईचारे की भावना और सर्वहारा के लिए क्रांतिकारी लड़ाई का वह आह्वान था जो उन्होंने दक्षिण अमेरिका के लिए किया था. उनके ये विचार उस ‘नए पुरुष’ के जन्म का सपना थे जो अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए मेहनत करता है.


ग्राहम ग्रीन के अनुसार चे ने समाज में वीरता, साहस, संघर्ष एवं रोमांच को सुंदरता से अभिव्यक्त किया है. क्यूबा के स्कूलों में बच्चे आज भी प्रार्थना करते हैं कि वे ‘चे की तरह बनेंगे.’ दुनिया-भर के युवकों में चे के प्रति गजब की दीवानगी देखने को मिलती है, जिसका लाभ उठाने के लिए पूंजीवादी कंपनियां ‘चे’ के नाम से उत्पादों की रेंज बाजार में उतारती रहती हैं. चे नई पीढ़ी का ‘आइकन’ है. विद्रोह का प्रतीक है. चे अपने अदम्य दुस्साहस, निरंतर संघर्षशीलता, अटूट इरादों व पूंजीवादी विरोधी मार्क्सवादी विचारधारा के कारण आज पूरी दुनिया में युवाओं के महानायक हैं . चे की लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि जिस अमेरिकी साम्राज्यवाद से वह आजन्म जूझता रहा, उसी की कंपनियां चे की बेशुमार लोकप्रियता को भुनाने के लिए बनियान, अंडरवीयर, चश्मे आदि उपभोक्ता साम्रगी की बड़ी रेंज उसके नाम से बाजार में उतारती रहती हैं. 


*वी. के. सिंह ( 2019 ), चे ग्वेरा: एक जीवनी, राजकमल प्रकाशन.

*Sinclair, Andrew ( 2006), Viva Che! The strange Death and Life of Che Guevara.

*ओमप्रकाश कश्यप, अर्नेस्टो चे ग्वेरा: प्रखर साम्यवादी, छापामार यौद्धा.

*ओम प्रकाश कश्यप ( 2011), अर्नेस्टो चे ग्वेरा : अप्रतिम क्रांतियोद्ध

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Saturday, May 29, 2021

भारतीय राजनीति के असली चौधरी

 नोट:- निम्न ब्लॉग श्री हनुमान राम जी इसरान की फेसबुक वॉल से लिया गया , उनकी अनुमति ली गई हैं 

चौधरी चरण सिंह: देश के एक प्रमुख पथ-प्रदर्शक

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A Repost

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पुण्यतिथि पर इस आलेख के माध्यम से आदरांजलि!!


चौधरी चरणसिंह ( 23 दिसम्बर 1902--29 मई 1987 ) का जन्म उत्तरप्रदेश के नूरपुर गाँव के एक किसान परिवार में हुआ। गाँव में पले- बढ़े। खेत-खलिहान की असलियत से रूबरू हुए। कुशाग्र बुद्धि से सुसम्पन्न इस बालक की पढ़ाई के प्रति ललक शुरू से रही। साल 1925 में इतिहास में एम. ए. की डिग्री प्राप्त की। 1928 में आगरा यूनिवर्सिटी से विधि ( Law ) की उपाधि प्राप्त कर गाजियाबाद में वक़ालत के पेशे से जुड़ गए। 


स्वतंत्रता सेनानी

साल 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जब पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई तो आज़ादी के दीवाने इस युवा

ने अपना यौवन आज़ादी की लड़ाई में झोंक दिया। आजादी की लड़ाई के सभी प्रमुख आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। नमक सत्याग्रह में जेल गए थे। सन् 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रही के रूप में उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेजा गया। बाद में 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में भी वे कैद किए गए। स्वंतत्रता संग्राम के वे एक सच्चे सेनानी के रूप में राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरकर सामने आए।


हिम्मती इंसान

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, कृषि-लोकतंत्र के पक्षधर सिद्धांतकार, दलितों, पिछड़ो, किसानों, खेतीहर मजदूरों, दस्तकारों के हितों को नीति-निर्धारण में केंद्र-बिंदु पर रखने वाले देश के पंचम प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ( 28 जुलाई 1979 - 14 जनवरी 1980 ) सच्चाई, साहस और सादगी की सशक्त शख्सियत थे। 


बहुमुखी प्रतिभा के धनी चौधरी चरण सिंह ने सत्ता का रुख शहरों से गाँवो की ओर मोड़ कर अपने आर्थिक चिंतन का केंद्र-बिंदु गांव, खेत-खलिहान और कुटीर उद्योग को बनाया। विकास की अवधारणा में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रमुखता प्रदान कर उसके अनुरूप नीति निर्धारण करने में उनकी अग्रणी भूमिका रही है। किसान की उनकी परिभाषा सिर्फ़ ज़मीन के मालिक किसान तक ही सीमित नहीं थी। वे किसान की श्रेणी में भूमिहीन खेतिहर मजदूर, दस्तकार, कुटीर उद्योग से जुड़े हुए श्रमिकों को भी शामिल करते थे।


किसान- मसीहा

चौधरी चरण सिंह को गांव-ढाणी तथा कृषि की समस्याओं की गहरी समझ थी। उनके आर्थिक चिंतन में किसानों की व्यावहारिक समस्याएं तथा उनकी स्थितियों के प्रति चिंता साफ साफ झलकती है।


आज़ादी से पूर्व 1937 में 34 साल की उम्र में चौधरी चरण सिंह पहली बार गाज़ियाबाद क्षेत्र से प्रांतीय धारा सभा ( Legislative Assembly of the United Provinces ) के सदस्य चुने गए। किसानों को इज़ाफा-लगान व बेदख़ली के अभिशाप से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से उन्होंने सभा में लैण्ड यूटिलाइजेशन बिल ( भूमि उपयोग बिल) का मसौदा तैयार कर उसे पास करवाने का प्रयास किया परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने इस बिल को प्रस्तुत नहीं होने दिया। 


चौधरी साहब को पहली सफलता सन 1939 में मिली, जब उन्होंने धारा सभा में ऋण निर्मोचन विधेयक पारित करा लिया था। ऋण के बोझ के नीचे दबे किसानों को राहत दिलाने के उद्देश्य से उन्होंने धारा सभा में यह विधेयक प्रस्तुत किया था। विडम्बना देखिए कि उस समय कांग्रेस के ही कुछ विधायक नहीं चाहते थे कि यह विधेयक पास हो क्योंकि उन्होंने लाखों ग़रीब किसानों को ऋण के जाल में फंसा रखा था। तार्किकता के धनी चरण सिंह ने विधेयक की पुरज़ोर पैरवी की और विधेयक पास हो गया। इसके परिणामस्वरूप लाखों किसान ऋण के जाल से मुक्त हो सके। 


आजादी के बाद चौधरी साहब देश के सबसे बड़े प्रान्त उत्तर प्रदेश के कृषि व राजस्व मंत्री बने। उत्तर प्रदेश सरकार ने सन 1952 में जो जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार विधेयक पारित किया था, उसे तैयार करने का दायित्व मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने चौधरी साहब को ही सौंपा था। चौधरी चरण सिंह के द्वारा तैयार किया गया जमींदारी उन्मूलन विधेयक राज्य के कल्याणकारी सिद्धांत पर आधारित था। उनकी कोशिशों के बदौलत जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और गरीबों को खेतों पर अधिकार मिला। 


चौधरी साहब ने ग़रीब तबक़े के हित को ध्यान में रखकर इस विधेयक का मसविदा तैयार किया और देश भर में इसकी सर्वत्र प्रशंसा की गई। इस क्रांतिकारी विधेयक ने पूरे देश के लिए प्रेरणा का काम किया था। अमेरिकी अर्थशास्त्री वुल्फ़ ए. लैंडजिन्सकी ने भारत के योजना आयोग को प्रस्तुत एक रिपोर्ट में इसकी प्रशंसा की थी, वह असल में चौधरी साहब की प्रशंसा ही थी। लैंडजिन्सकी ने कहा था, "उत्तर प्रदेश... एक ऐसा राज्य है, जहां बहुत सोचा- समझा व व्यापक कानून पारित किया गया है, और उसे असरदार ढंग से लागू किया गया है। वहां लाखों काश्तकारों को जो जमीन से बेदखल कर दिए गए थे, उनके अधिकार वापस दिए गए हैं।" 


इसी श्रंखला में चौधरी साहब ने 1953 में 'चकबंदी कानून' तथा 1954 में 'भूमि संरक्षण कानून' पारित करवाया, जिसके परिणामस्वरूप राज्य के हर छोटे से छोटे किसान को उसकी ज़मीन का वास्तविक हक मिल सका। किसान नेता के रूप में उन्होंने किसानों को छोटे आकार के खेतों की उपयोगिता को सरलता से समझा दिया। इससे कृषि को वैज्ञानिक स्वरूप प्राप्त करने में सहायता मिली। इसके साथ ही निर्धन किसानों की सहायतार्थ सस्ते खाद बीज आदि के लिए कृषि आपूर्ति संस्थानों की स्थापना की गईं। 1960 में जब उन्हें गृह एवं कृषि मंत्रालय सुपुर्द किया गया तब भूमि हदबंदी क़ानून लागू करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।


चौधरी चरणसिंह ने राज्य द्वारा सामूहिक और सहकारी खेती के समर्थन के सवाल पर नेहरू की अर्थनीति का इस आधार पर विरोध किया कि सामूहिक खेती मानव-स्वभाव के विरुद्ध है और इससे उत्पादन पर ख़राब असर पड़ेगा। 


मुख्यमंत्रित्व काल:-

चौधरी चरणसिंह ने सन 1967 में गैर-कांग्रेसवाद का दामन थाम लिया और एक नई पार्टी भारतीय क्रांति दल का गठन किया, जिसका चुनाव चिह्न 'हलधर' ( कंधे पर हल धारण किया हुआ किसान ) था। बड़े पैमाने पर किए जा रहे औद्योगीकरण के स्थान पर यह नई पार्टी कृषि निवेश पर जोर देने वाली नीतियां बनाना तथा गाँवों में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना चाहती थी।


किसान-मजदूर वर्ग को एकजुट कर उन्होंने उत्तर प्रदेश में एक सशक्त संगठन खड़ा किया, जिसे मजगर MJGAR ( मुस्लिम-जाट-गुर्जर-अहीर-राजपूत ) नाम से जाना गया। जनाधार वाले नेता के रूप में उभरने के कारण चौधरी चरण सिंह पहली बार 3 अप्रैल 1967 को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने। इस पद पर रहते हुए उन्होंने कुटीर उद्योगों तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि की योजनाओं को लागू कर सरकारी एजेंसियों द्वारा ऋण देने के तौर -तरीकों को सरल बनाया। साढ़े छह एकड़ तक कि जोत पर आधा लगान माफ़ कर दिया। किसानों को नक़दी एवं अन्य फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने के संबंध में महत्वपूर्ण निर्णय लिए और किसानों के लिए जोतबही की व्यवस्था की। भूमि- भवन कर समाप्त किया। इसके अलावा उन्होंने खाद पर से सेल्स टैक्स हटाकर किसानों को एक बड़ी राहत दी। 1967 में देशभर में सांप्रदायिक दंगे बड़े पैमाने पर हुए परंतु चौधरी चरण सिंह के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए उत्तर प्रदेश में पूर्ण साम्प्रदायिक सद्भाव क़ायम रहा।


एक साल के बाद 17 अप्रैल 1968 को उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। मध्यावधि चुनाव में उन्होंने अच्छी सफलता मिली और दुबारा 17 फरवरी 1970 को वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। दूसरे कार्यकाल में उन्होंने कृषि उत्पादन बढ़ाने की नीति पर जोर दिया। साढ़े तीन एकड़ वाली जोतों का लगान माफ़ किया और उर्वरकों पर बिक्री कर ख़त्म कर दिया। 

साढ़े तीन एकड़ वाली जोतों का लगान माफ कर दिया, भूमिहीन खेतिहर-मजदूरों को कृषि भूमि दिलाने के कार्य पर और जोर दिया। छः माह की अवधि में ही 6,26,338 एकड़ भूमि की सीरदारी के पट्टे और 31,188 एकड़ के आसामी पट्टे वितरित किये गये।सीलिंग से प्राप्त सारी जमीनें भूमिहीन दलितों तथा पिछड़े वर्गों को ही दी गई। 


भूमि विकास बैंकों की कार्यप्रणाली को और उपयोगी बनाया। अपने कार्यकाल में उन्होंने सीलिंग से प्राप्त जमीनों को भूमिहीनों, गरीबों और दलितों में बांट दिया। गुंडा विरोधी अभियान चलाकर यूपी में उन्होंने कानून का राज चलाया।


अक्टूबर 1970 में उत्तरप्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर देने के बाद से चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक गतिविधियां केंद्र ( दिल्ली) की तरफ़ झुकती गईं। 

29 अगस्त 1974 को उन्होंने लोकदल का गठन किया।आपातकाल की अवधि में चौधरी चरण सिंह को नजरबंद कर दिया गया।


राष्ट्रीय राजनीति में धमक

राष्ट्रीय राजनीति में चौधरी चरण सिंह किसानों के सशक्त गठजोड़ के शिल्पी के रूप में अपनी पहचान स्थापित की। आपातकाल के बाद 1977 में हुए आम चुनाव के बाद जब जनता पार्टी की सरकार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी तब चौधरी चरण सिंह को उप -प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री बनाया गया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने 'मण्डल आयोग 'एवं 'अल्पसंख्यक आयोग' की स्थापना की। मण्डल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ही देश के के बड़े पिछड़े वर्ग को आरक्षण का लाभ मिल सका था।दरअसल डॉ.राम मनोहर लोहिया के बाद चौधरी चरण सिंह देश की राजनीति में अकेले ऐसे नेता थे, जिन्होंने पिछड़ी जातियों में राजनीति में हिस्सेदारी का एहसास जगाया और उन्हें सत्ता के नए शक्ति केंद्र के रूप में उभारा।


भारत सरकार में गृह मंत्री बनने पर चौधरी साहब ने हिंदी भाषी प्रदेशों के युवाओं की परेशानी को ध्यान में रखते हुए युनियन पब्लिक सर्विस कमीशन( UPSC) में सीविल सर्विसेज् में पहली बार हिन्दी माध्यम से परीक्षा देने का प्रावधान करवाया। इस प्रावधन की बदौलत ही हिन्दी भाषी युवाओं के लिए लिये इंडियन सीविल सर्विसेज् में अपनी करामत दिखाने का मौका मिला। बात दें कि इससे पहले आई सी एस परीक्षा सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से ही देनी पड़ती थी, जिसके कारण हिंदी भाषी प्रदेशों के ग्रामीण विद्यार्थी इस परीक्षा में बैठने से हिचकिचाते थे।


केंद्र सरकार में चौधरी चरण सिंह ने गांव-खेत-खलिहान- खेतिहर मजदूर-कुटीर उद्योगों का राष्ट्रीय विकास में महत्व स्वीकारते हुए ग्रामीण विकास नीतियों को केंद्र बिंदु में रखा। चौधरी साहब ने जनता पार्टी की सरकार में 1979 में वित्त मंत्री तथा उप-प्रधानमंत्री के रूप में पदासीन रहते हुए राष्टीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक-नाबार्ड की स्थापना की। उर्वरकों व डीजल के दामों में कमी की, कृषि यंत्रों पर उत्पाद शुल्क घटाया, काम के बदले अनाज योजना लागू की। 


यह चौधरी चरण सिंह ही थे जिन्होंने महात्मा गाँधी की सोच के अनुसार ‘अंत्योदय‘योजना को प्रारम्भ किया। विलासिता की सामग्री पर भारी टैक्स चैधरी चरण सिंह ने ही लगाये। मूल्यगत विषमता पर रोक लगाने के लिए कृषि जिन्सों की अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी रोक हटाई। लाइसेंस आवण्टन पर पाबंदी लगाई तथा लघु उद्योगों को बढ़ावा दिया। उन्होंने बड़ी कपड़ा मिलों को 20 प्रतिशत कपड़ा गरीब जनता के लिए बनाने की हिदायत दी। पहली बार कृषि बजट की आवण्टित राशि में उन्होंने वृद्धि की। ग्रामीण पुनरूत्थान मंत्रालय की स्थापना की, जो इस समय ग्रामीण विकास मंत्रालय के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त चौधरी चरण सिंह ने डीजल के मूल्य को भी नियंत्रित करने का साहसी कदम उठाया, जिससे किसानों को खेती की लागत में कमी का फायदा मिल सका। ट्रैक्टर को खेती के लिए परिवहन का साधन ऊंट गाड़े के रूप में मानते हुए उसे टैक्स व उसका चालान करने से मुक्त किया।


चौधरी चरण सिंह ग्राम्य विकास के लिए कुटीर एवं लघु उद्योगों को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण की बात कहते थे। वर्ष 1979-80 का संसद में चौधरी साहब ने जो बजट पेश किया उसमें उन्होंने कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने और इसमें विकास की गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए विशेष जोर दिया था। उदाहरण के लिए उन्होंने भारत के कुटीर उद्योग व लघु उद्योगों में बनी माचिस से लेकर बिस्कुट, टॉफ़ी आदि पर मामूली शुल्क लगाया था और इन्हीं वस्तुओं को बनाने वाली बड़ी कम्पनियों पर अधिक टैक्स लगाया था। जाहिर है चौधरी साहब ने उस समय की आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए यह नीति अपनाई थी। 


स्वतंत्र विचारक व मौलिक लेखक

चौधरी चरण सिंह ने देश की आर्थिक स्थितियों पर कई पुस्तकें एवं अनेक लेख लिखे हैं जिनमें उन्होंने स्वतंत्र रूप से अपनी बातें कही हैं। उनका आर्थिक चिंतन गांधी जी के अधिक करीब है। उनकी आर्थिक नीति ग्रामोन्मुख थी। आजादी के पहले अंग्रेजी शासन ने भारत की अर्थव्यवस्था के आधार कृषि और कुटीर उद्योग दोनों को तोड़कर देश को कमजोर किया था। चौधरी साहब इसी दुर्बलता को समाप्त कर के भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनः सुदृढ़ और प्रगतिशील बनाना चाहते थे। वे किसानों के शोषण को जनतांत्रिक तरीके से समाप्त करने तथा गांधीवादी तरीके से देश का विकास करने के हिमायती थे।


चौधरी साहब का तर्क था कि कृषि के काम में देश की 57.75 प्रतिशत जनता लगी हुई है और यदि इसमें भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की तादाद को भी जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 75.5 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा। जिस देश की इतनी अधिक आबादी कृषि से जुड़ी हो तो वहाँ की सरकार और प्रशासन में खेत-खलिहान की समझ रखने वाले लोगों का प्रभुत्व होना चाहिए।


इसीलिए आजादी से ठीक पहले 21 मार्च 1947 को चौधरी साहब ने एक लेख लिखा जिसका शीर्षक है, ‘Why 60% services should be reserved for sons of cultivators?’ इस लेख के जरिए उन्होंने सरकारी सेवाओं में किसानों के लिए आरक्षण की मांग की। स्पष्ट कर दूं कि आजादी के बाद हिंदी में लिखे इस लेख में उन्होंने इस आरक्षण सीमा को 50% तक करने की मांग की।


भारतीय अर्थव्यवस्था एवं खेती-किसानी पर चौधरी चरण सिंह के चिंतन और लेखन का दायरा विशाल है।आज तक भारत में ऐसा शायद ही कोई नेता हुआ है, जिसने कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर चौधरी चरण सिह जितना चिंतन किया हो या फिर इतनी संख्या में पुस्तकें लिखीं हो। बता दें कि उनकी पुस्तकें बाकायदा अंग्रेजी मे हैं और विदेशी विश्विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्वीकृत हैं। विषविधली। उनके द्वारा लिखी पुस्तकों की सूची पर जरा नज़र डालिए:


1. Abolition of Zamindari (1947)

2. शिष्टाचार (1954)

3. Whither Co-operative Farming (1956)

4. Agrarian Revolution in Uttar Pradesh (1957)

5. Joint Farming X-rayed: the Problem and its Solution (1959)

6. India’s Poverty and It’s Solution (1964)

7. India's Economic Policy: The Gandhian Blueprint (1978)

8. Economic Nightmare of India: Its Cause and Cure (1981)

9. Peasant Proprietorship or Land to the Workers

10. Prevention of Division of Holdings below a Certain Minimum

11. Land Reforms in UP and the Kulaks (1986)


इन पुस्तकों के अलावा चौधरी चरण सिंह ने विभिन्न प्रख्यात पत्र-पत्रिकाओं में किसानी को लेकर कई लेख लिखे। उन्होंने 2 अक्टूबर 1979 को चौधरी देवी लाल और राजनारायण के साथ मिलकर किसान ट्रस्ट के मार्फत ‘असली भारत’ और ‘Real India’ नाम से किसानों के मुद्दे उभारने के लिए दो साप्ताहिक पत्रिकाएं भी लॉन्च की। “देश की समृद्धि का रास्ता गांवों के खेतों एवं खलिहानों से होकर गुजरता है” जैसा नारा देने वाले चरण सिंह अपने लेखन के जरिए हमेशा किसान- कल्याण पर गहन चिंतन करते रहे और मौका मिलने पर इस दिशा में सार्थक काम करके भी दिखाया।

चौधरी चरण सिंह को 'किसानों के हिमायती' के रूप में पहचाना जाता रहा है किन्तु अफ़सोस की बात है कि उनके लेखन की बहुत कम लोगों को जानकारी है। 


किसानों की दुर्दशा और भारत 

चौधरी चरण सिंह ने 1980 में एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था 'नाइट मेयर आफ इंडियन इकॉनमी' (भारतीय अर्थव्यवस्था का दुरास्वप्न)। इस पुस्तक में उन्होंने स्पष्ट किया कि पश्चिमी देशों के विकास के मॉडल का अंधानुकरण करके हम भारत का समावेशी विकास नहीं कर सकते। इसके लिए हमें एेसी आर्थिक व्यवस्था का सृजन करना होगा जिसमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को बढ़ाकर उसका समुचित बाजार मूल्य तय हो सके। कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजी निर्माण (कैपिटल फॉर्मेशन ) करके ही इसका हल ढूंढा जा सकता है।


इस पुस्तक में चौधरी चरण सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था की समुचित विवेचना कर नतीजा निकाला कि कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था में शहरों की ओर पूंजी का रुख मोड़ने से नहीं बल्कि पूंजी के ग्रामोन्मुखी होने से ही बदलाव आयेगा और सहायक उद्योगों के विस्तार से ही बेरोजगारी का सामना करते हुए अधिक से अधिक जनसंख्या की खेती पर निर्भरता समाप्त की जा सकेगी।


चौधरी साहब मानते थे कि महात्मा गांधी के कुटीर उद्योग दर्शन से ही भारत के गांवों को समृद्ध बनाया जा सकता है और कृषि मूलक लघु उद्योगों के जरिये किसानों की आय में बढ़ोत्तरी करके उन्हें समाज के अन्य संभ्रान्त वर्गों के समकक्ष बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं पाने में सक्षम बनाया जा सकता है। मगर इसके लिए सबसे पहले कृषि पैदावार बढ़ाने हेतु किसानों को आधुनिकतम खेती तकनीकों से लैस किया जाना जरूरी होगा। पैदावार बढ़ाये बिना कृषि पर निर्भरता कम नहीं की जा सकती। 


चौधरी साहब इस बात पर जोर देकर कहते थे कि सरकारी नीतियां बाजार मूलक न होकर गांव व कृषि मूलक बनानी होंगी और खेती की लागत को कम करते हुए उत्पादकता बढ़ाकर किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य इस प्रकार देना होगा कि वह औद्योगिक उत्पादन की लाभप्रदता का मुकाबला अपने बूते पर ही कर सके। इससे ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के बीच की खाई को पाटने में मदद मिलेगी। गांवों का विकास सुनिश्चित होने से इन इलाकों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार होगा और किसानों की अगली पीढि़यां डॉक्टर, इंजीनियर व वैज्ञानिक बनने के साथ राष्ट्रीय राजनीति में अग्रणी भूमिका निभा सकेंगी। 


साल 1981 में चौधरी चरण सिंह ने Economic Nightmare of India: Its Causes and Cure (भारत का आर्थिक दु:स्वप्न: इसका कारण और इलाज) नामक ग्रंथ प्रकाशित किया, जिसमें एक पेशेवर अर्थशास्‍त्री की तरह उन्होंने पूरे तथ्यों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति, उसकी समस्याओं और उनके समाधान पर विस्तार से विवेचन करके अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए। उनका मानना था कि आजादी के समय भारत के सामने एक-दूसरे से जुड़ी हुई चार समस्याएं थीं- गरीबी, बेरोजगारी या अर्ध-बेरोजगारी, निजी आय में व्यापक असमानता और किसान-मजदूर वर्ग के अलावा अन्य वर्गों की कठोर श्रम के प्रति बढ़ती अरुचि। यदि हम आज के भारत पर नजर डालें तो यही समस्याएं आज भी मुंह बाए खड़ी दिखती हैं। हां, उनका स्वरूप अब पहले से कहीं अधिक विकराल हो गया है। विकास की प्रक्रिया इस प्रकार से आगे बढ़ी है कि आर्थिक विकास के फलस्वरूप देश के कुछेक परिवारों में समृद्धि का केंद्रीकरण हो रहा है और सबसे गरीब व्यक्ति और सबसे अमीर व्यक्ति के बीच की खाई इतनी अधिक गहरी और चौड़ी हो गई है कि अब उसे भरना असंभव हो गया है।


चौधरी चरण सिंह ब्रिटिश-विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर से उभरे हुए नेता थे और उनकी सामाजिक चेतना और जीवनमूल्यों पर गांधीवादी चिंतन और आचरण का बहुत गहरा असर था। अपने ग्रंथ के प्राक्कथन में उन्होंने प्रसिद्ध स्वीडिश अर्थशास्‍त्री गुन्नार मिर्डल के एक लेख को उद्धृत किया है, जिसमें मिर्डल ने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की योजना यदि गांधी की समन्वित विकास की अवधारणा पर आधारित होती तो उसे अनेक समस्याओं का सामना ही न करना पड़ता और ग्रामीण विकास की राह आसान हो जाती।


अर्थव्यवस्था केविकेंद्रीकरण के पैरोकार

चौधरी साहब ग्राम में विकास के लिए कुटीर एवं लघु उद्योगों को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण की बात कहते थे। उन्होंने सन् 1982 में लिखे अपने लेख "भारत का बिगड़ता रूप" में स्पष्ट रूप से लिखा था कि..." गरीबी से बचकर समृद्धि की ओर बढ़ने का एक मात्र मार्ग गांव तथा खेतों से होकर गुजरता है ...हमें ग्रामीण क्षेत्रों को प्राथमिकता देकर तथा कृषि को केंद्र बनाकर कुटीर उद्योग और कृषि की ओर वापस लौटना होगा।" 


वास्तविक भारत गांवों में रहता है पर देश की सत्ता तथा प्रशासनिक बागडोर शहरों में पले-बढ़े राजनेताओं व बुद्धिजीवियों के हाथों में है। ये लोग न तो गांवों की समस्याओं से परिचित हैं, न ही उसकी जरूरतों, कमियों, आवश्यकताओं तथा ग्रामीणों के मनोविज्ञान को समझते हैं। यही वजह है कि ये लोग गांव की समस्याओं का समाधान उनके दिमाग में पहले से बनी धारणाओं के आधार पर करने की कोशिश करते हैं। विदेशी खेलों को देखकर या किताबें पढ़कर हमारे नीति निर्माताओं, शहरी नेताओं व प्रशासकों ने अधकचरी योजनाएं प्रारम्भ की हैं। सहकारी खेती, राज्य द्वारा अनाज का व्यापार, फसल बीमा या खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी--ये ऐसी योजनाएं हैं, जो असफल रही हैं।


असली भारत शहरों में नहीं, गाँवों में निवास करता है। आजकल जिस न्यू इंडिया की बात जोरशोर से की जा रही है, वह असली भारत से अलग है। गांव निर्धन हैं, क्योंकि खेती व कुटीर उद्योग बर्बाद हो चुके हैं। अधिकांश जनसंख्या बेरोजगार है या अर्द्ध-बेरोजगार है। गांव की विशाल श्रम-शक्ति को उन्नत खेती व कुटीर उद्योगों से जोड़कर ही उन्हें उत्पादक रोजगार दिया जा सकता है।

सरकारी संरक्षण में प्राकृतिक संसाधनों की लूटमार कर बड़ी पूंजी लगाकर शुरू होने वाले यंत्रीकृत अर्थ-व्यवस्था केवल बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी करेगी और धन कुछ कॉरपोरेट घरानों के हाथों में सिमटता जा रहा है। इस प्रकार पूंजीवाद अपनी सारी बुराइयों के साथ देश को अपने शिकंजे में कसता जा रहा है।


निष्कर्ष यह है कि भारत में समृद्धि की ओर बढ़ने का एकमात्र मार्ग गांव तथा खेतों से होकर गुजरता है, शहर तथा उद्योग नगरियों से होकर नहीं। गांधी दर्शन के अनुरूप चौधरी चरण सिंह देश का निर्माण नीचे ( गरीब तबक़े ) से ऊपर ( अमीर तबक़े ) की ओर करना चाहते थे। वे इस बात पर जोर देते थे कि नीति-निर्माताओं का ध्यान गांव और शहरों में रहने वाले गरीबों पर केंद्रित होना चाहिए। जब तक उनकी दशा नहीं सुधरेगी और उनका आर्थिक विकास नहीं होगा, तब तक देश की अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं हो सकती। 


जाति- प्रथा के घोर विरोधी

चौधरी साहब जाति प्रथा को एक सामाजिक बुराई मानते थे, और सर्वधर्म समभाव के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने अपनी पुस्तक "इकोनॉमिक नाइटमेर ऑफ इंडिया: इट्स कॉजेज एंड क्योर" में जाति -प्रथा की बुराई का जिक्र करते हुए लिखा है कि "...जाति प्रथा के कारण ही भारत के विभिन्न धार्मिक समूह सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक दूसरे के समीप नहीं आ सके, तथा एक सुदृढ समाज का निर्माण नहीं हो सका " पंडित नेहरू को 26 मई 1954 को लिखे एक पत्र में चौधरी साहब ने कहा था कि 'इससे (जाति-प्रथा ) से विभेद और अन्याय बढ़ता है। इससे विकृतियां बढ़ती हैं। आदमी के दिल और दिमाग में संकीर्णता जाती है, तथा दोषारोपण का दुष्चक्र पैदा हो जाता है, और समाज में अविश्वास तथा संदेह की भावना भर जाती है।" चौधरी साहब की इस चेतावनी को याद रखने की जरूरत है।


दुःखद बात यह है कि चौधरी चरण सिंह भारतीय राजनीति में सबसे ज़्यादा ग़लत समझे जाने वाले नेता रहे हैं। जिंदगी भर वे मीडिया, बुद्धिजीवी और कुलीन वर्ग के निशाने पर रहे परन्तु वे अपने चिंतन की धारा से कभी विमुख नहीं हुए। चौधरी चरण सिंह जातिवाद के घोर विरोधी थे। उन्होंने अपनी पुत्रियों का अंतरजातीय विवाह किया और ताउम्र जातिवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते रहे परन्तु मीडिया इस किसान हितैषी नेता को जाति विशेष से जोड़ा जाता रहा। 


चौधरी साहब के जातिवाद का विरोधी होने का ही सबूत है वह शासकीय आदेश जो उन्होंने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री की हैसियत से सन 1967 में पारित किया। आदेश यह था कि ”जो संस्थाएं किसी जाति विशेष के नाम पर चल रही हैं , उनका शासकीय अनुदान बंद कर दिया जायेगा।" नतीजतन इस आदेश के तत्काल बाद ही स्कूल/ कॉलेजों के नाम के आगे से जाति -सूचक शब्द हटा दिए गए। उनका तो प्रस्ताव था कि देश में जितनी भी संस्थाएँ जाति के नाम से संचालित हैं, उनकी सरकारी ग्रांट तब तक बंद कर देनी चाहिए जब तक कि वे जाति का नाम पृथक नहीं कर दें।


जमीन से जुड़ा हुआ जन नेता

चौधरी चरण सिंह को अत्यंत खुले चरित्र के व्यक्तियों में से थे। छुपाने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था। मन में किसी भी तरह का दुराव-छिपाव नहीं पालते थे। जो कुछ भी सोचते थे, वही कहते थे, और जो कुछ कहते थे, वही करते भी थे। चौधरी साहब एक निर्भीक चरित्र वाले साहसी व्यक्ति थे। अपनी बात को कहने में न तो वे लाग लपेट का सहारा लेते थे, और नहीं हिचकते थे। उनकी यह निर्भीकता और साफ़गोई हमारे देश के आम किसान के चरित्र का प्रतिनिधित्व करती थी। इसलिए चौधरी चरण सिंह को देश की जड़ों से जुड़ा हुआ राजनेता माना जाता है।


उसूलों पर अडिग रहने वाले जन नेता

चौधरी चरण सिंह को अपने नेतृत्व वाली सरकार का लोकसभा में 20 अगस्त 1979 को बहुमत साबित करना था। कांग्रेस-आई ने समर्थन के लिए शर्त रख दी कि जनता पार्टी सरकार द्वारा बदले की भावना से श्रीमती गांधी और पार्टी के खिलाफ जो मुकदमे दायर किए हैं , वे वापिस लिए जाएं। चौधरी चरण सिंह ने यह शर्त स्वीकार नहीं की और राष्ट्रपति को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति ने लोकसभा भंग कर दी और मध्यावधि चुनाव घोषित कर दिए। सन 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाला लोकदल लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में उभरा और वे विपक्ष के नेता बने। 


चौधरी चरण सिंह हमारे देश की जमीन से जुड़े हुए नेता थे। इसलिए उन्हें इस देश की अस्मिता की गहरी पहचान थी। यह बात उनके व्यवहार, चिंतन और कार्य में लगातार व्यक्त भी होती रही। सरल वेशभूषा, सादगीपूर्ण जीवन तथा सहज व्यवहार अंत तक उनके जीवन का अभिन्न अंग रहा, भले ही वे देश-प्रदेश के कितने भी महत्वपूर्ण पद पर क्यों ना रहे हों। वे अपने उसूलों पर अडिग रहते थे। उनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा जगज़ाहिर थी। इसी कारण उनके व्यक्तित्व में एक प्रकार की विलक्षण दृढ़ता थी। नैतिक मूल्यों से वे हमेशा जुड़े रहे, और उनकी छवि एक कर्मठ,कुशल और सत्यवादी नेता के रूप में स्थापित हुई। जिस-जिस पद पर वे रहे, वहाँ-वहाँ उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कार्यकुशलता की छाप छोड़ी।


मूल्याकंन

भारतीय मीडिया, उद्योग जगत, एलीट क्लास और दक्षिण पंथी ताकतों से चौधरी चरण सिंह का शुरू से छतीस का आंकड़ा रहा। पूंजीपतियों व कुलीन वर्ग के खिलाफ दम ठोककर बात कहते रहने के कारण मीडिया उनके खिलाफ ख़ूब उलजुलूल लिखते थे। उन्होंने इसकी कभी परवाह भी नहीं की। चौधरी साहब अपने समर्थकों को इस बारे में चेताते हुए कहते थे कि 'जिस दिन अखबारों में मेरी प्रशंसा छपने लगे समझ लेना मैं आपका नहीं रहा।'


बेबुनियाद आलोचनाओं की परवाह नहीं करते हुए चौधरी चरण सिंह ठसक के साथ लगभग आधी शताब्दी तक भारतीय राजनीति के नभ में धूमकेतु की तरह छाए रहे। भारत के ग्रामीण इलाकों में उनकी बढती लोकप्रियता से उनके विरोधी इतने घबरा गए थे कि उनके खिलाफ जातिवादी होने, कभी हरिजन विरोधी होने, कभी मुस्लिम विरोधी होने, उद्योग-जगत के ख़िलाफ़ होने आदि के बेबुनियाद आरोप लगाए जाते रहे। किन्तु वे कभी विचलित नहीं हुए। उन्होंने शोषित- पीड़ित तबकों तथा किसानों की भलाई के लिए संघर्ष जारी रखा। 


विदेशी लेखकों व चिंतकों ने चौधरी साहब के चिंतन की विराटता व गहराई को भलीभांति समझा और इसे सराहा। पॉल आर ब्रास, टेरेंस और जे बायर्स जैसे राजनीति विज्ञान के विश्वविख्यात जानकारों ने चरण सिंह के चिंतन की गहराई की भरपूर प्रशंसा करते हुए की खूब लिखा। प्रोफेसर पॉल आर ब्रास ने हिंदुस्तान की राजनीति और समाज का पिछले करीब 60 सालों से अध्ययन किया है, 18 से अधिक पुस्तक लिखीं हैं, और सौ से अधिक लेख लिखे हैं।


पॉल आर ब्रास ने तो ‘An Indian Political Life: Charan Singh and Congress Politics’ के टाइटल के तहत तीन खंड लिख डाले। चौधरी चरण सिंह के बारे में ब्रास ये लिखते हैं, “he was of a 'higher category of leaders' in the areas of 'intellect, personal integrity, and . . . Coherence of his economic and social thought." 

यानी विद्वता, व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा के मामलों में चरण सिंह महानतम नेताओं की श्रेणी में शामिल थे, जिनका आर्थिक और सामाजिक चिंतन पूर्णतया प्रासंगिक था। दूसरे शब्दों में, ब्रास का मानना है कि चरण सिंह आज़ादी के पश्चात भारत के सबसे ईमानदार और प्रभावी नेता तो थे ही, साथ ही उनकी गांव और कृषि पर आधारित आर्थिक और सामाजिक विकास की नीति तथा चिंतन भारत के लिए एकदम उपयुक्त हैं।


ब्रास यह भी लिखते हैं, "Charan Singh was a phenomenon who arrived on the national stage in peasant costume and demeanor, but with the intelligence of an intellectual and a scholar. Those American and European Scholars who did meet him in the 1960s when he was a minister in the UP government - or out of the power temporarily - were immediately impressed by his intelligence, intellect, knowledge and demeanour. 

यानी “पश्चिम के विद्वानों के लिए चरण सिंह एक अद्भुत शख्सियत थे जिनकी बुद्धिमानी, विद्वता, ज्ञान और आचरण से 60 के दशक में उनसे मिलने वाले वाले अमेरिकी और ब्रितानी विद्वान बेहद प्रभावित थे।


बीबीसी ने चौधरी साहब के बारे में यह लिखा है, “दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, केंद्र में गृह और वित्त मंत्री और कुछ समय के लिए भारत के प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह को सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी के उच्चतम मूल्य स्थापित करने के लिए याद किया जाता है।"


चौधरी चरण सिंह की स्पष्ट मान्यता थी कि भारी उद्योगों तथा विदेशी पूँजी पर आधारित अर्थव्यवस्था से देश का भला नहीं हो सकता। वे छोटे, मंझले व कुटीर उद्योगों तथा कृषि को संरक्षण एवं प्राथमिकता देने वाली नीतियों के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने ’’स्वदेशी’’ अवधारणा को जिया। 


चौधरी चरण सिंह के विचार वर्तमान में पहले से भी अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। वे चाहते थे कि भारत के गाँव-गाँव में छोटे-छोटे उद्योग लगें, देश व समाज का उत्पादन बढ़े। उनकी आशंका थी कि उत्पादन को बड़े शहरों में स्थापित बड़ी पूँजी व बड़ी मशीनों वाले कारखानों तक सीमित कर देने से भारतीय अर्थव्यवस्था चौपट हो जायेगी और आर्थिक विषमता घटने की जगह बढ़ेगी। उनकी आशंका अथवा उस दौर में दी गई चेतावनी कालांतर में सही साबित हुईं। आज हम देख रहे हैं कि हर ओर अमीरी-गरीबी की खाई और गहरी हुई है। भारत जैसे श्रम व कृषि प्रधान देश के लिए चैधरी चरण सिंह की अर्थनीति से बेहतर कोई नीति नहीं हो सकती है, जिसके मूल में महात्मा गांधी और डा0 लोहिया की व्यापक सोच समाहित है। 


आज़ादी की 70 वीं वर्षगांठ पर अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'इण्डिया टुडे' द्वारा 25 सितम्बर 2017 को ' 70 Visionaries who Defined India' शीर्षक से विशेषांक प्रकाशित किया जिसमें चौधरी चरण सिंह को उन 70 महान भविष्यद्रष्टा भारतीयों में सम्मलित किया गया जिन्होंने भारत को परिभाषित किया है। दुःखद स्थिति है कि जातियों के घेरे में सिमटी आज की जातिगत राजनीति और धर्म -सम्प्रदायों पर आधारित राजनीति ने चौधरी चरण सिंह के किसान- मजदूर तथा गाँव पर आधारित राजनीति के मॉडल की कमर तोड़ दी है।


✍️✍️ प्रोफेसर हनुमाना राम ईसराण

पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा राजस्थान

Tuesday, May 25, 2021

#सिर_उठे_रहना_जरूरी_है

 #बोलना_जरूरी_हैं

#सिर_उठे_रहना_जरूरी_हैं

 

बेबस गूंगे पूछते हैं मुझसे, तुम बोल कैसे लेते हो?|

रोजी-रोटी छिन जाएगी, डर नहीं?,

ये साहस कहां से लाते हो !?


मैं कहता हूं, ठीक वैसे, जैसे , तुम सुनके सहन कर लेते हो,

दर्द सीने में दबाए हुए, जुबां को सील लेते हो ||


तुम बतलाओ , मातम में भी यशोगान कैसे कर लेते हो ??

चोट तुम्हें भी लगी होगी, दर्द में जयघोष कैसे कर लेते हो??


जो अखरता तुमको भी है, चुपचाप सुन कैसे लेते हो??

आजाद मुल्क में , गूंगे बने, गुलामी कैसे कर लेते हो||


न जाने कितने सिर कुर्बान हुए , तुम्हारा सिर उठाने को |

फिर भी तुम किस लोभ में, किस डर में, सिर झुका लेते हो ??!


Wednesday, May 12, 2021

कहानी त्रासदी की

 कहानी त्रासदी की 

 एक बहुत विशाल वटवृक्ष था , बहुत बड़ी बड़ी शाखाएं , फिर मजबूत डालियां , करोड़ों अनगिनत हरे पत्तों से युक्त ये वटवृक्ष आस पास के सारे पेड़ों से अलग था, कमोबेश आस पास का हर पेड़ इससे ईर्ष्या करता था, इसकी हरी पत्तियों को इसके मजबूत अथाह  विश्वास था, क्यूंकि तना मजबूत था और सारे खनिज लवण और पानी की पूर्ति अबाध गति से होती थी , सबका साथ था, सबका विश्वास था, फ़िर एक बार तनें में दीमक लग गई, सब शखाओं , पत्तियों ने तने से शिकायत की , तना अनसुना करता रहा क्योंकि वो दंभ में था मेरे जितना चौड़ा और बड़ा कोई नहीं इसलिए मुझे दीमक नहीं लग सकती, हक़ीक़त में ऐसा नहीं था दीमक बढ़ती जा रही थी , पहली गाज़ पत्तियों पर गिरी, आवश्यक तत्वों की कमी से सुख कर गिरने लगी, तना फिर भी बेखबर रहा , कोई शिकायत करता तो कहता , दूसरे पेड़ों को देखो उनका भी यहीं हाल है , दीमक बढ़ती जा रही थी , पत्तियों के साथ अब एक दूका छोटी डालियां भी गिर रही थी , तना फिर भी बेखबर रहा , वो अपने बाहरी आवरण पर दंभ भरता रहा, अंदर के खोखलेपन को नजरंदाज करता , अब सब शाखाओं , पत्तियों में अफरा तफरी थी , तब जाकर उसे अहसास हुआ कि पूरे पेड़ की खूबसूरती गायब हो रहीं , हर कोई आने जाने वाला पूछता क्या बात है , ये सब क्या हो रहा हैं , तना बोलता , शाखाओं की गलती हैं , पत्तियां सही तरीके से काम नहीं कर रही ..

..तना था "सिस्टम"..पत्तियां थी "जनता" और जल और खनिज लवण थे ऑक्सिजन, बेड, आईसीयू..

दीमक ..फैलता रहा , सिस्टम झूठे दंभ भरता रहा ..

न जाने कितनी पत्तियों को असमय जाना पड़ा,

..पिछले एक महीने से पूरे देश में अफरा - तफरी का माहौल है, ट्विटर, वॉट्सएप, फेसबुक, सोशल मीडिया  ऑक्सिजन, प्लाज्मा, बेड, आइसीयू, आवश्यक दवाओं की जरूरत से अटा पड़ा हैं..सब बदहवास है, दुःखी हैं, कई परिवार पूर्णतया ख़तम हो गए, कई जिंदगी भर का दर्द ले गए, ये सब हमारे अपने लोग हैं, एक देश के तौर पर हम हार गए, ये 1962 के युद्ध की हार से बुरा हैं,ये हर उस हार से बुरा हैं जो हमने अपने जीवन में देखी थी.. बहुत नौजवान लोग इसका शिकार हो गए , जो आने वाले 40-50 साल देश के लिए काम करते , देश की सम्पदा थे और ऐसे लोग लाखों में हैं..सोचिए कितना बड़ा नुकसान देश को हुआ है...जिम्मेदारी किसकी थी , गलती कहां हुई, ये बहस का विषय है..हमारी अंगुलियां स्क्रीन पर एक अच्छी खबर के लिए स्क्रॉल करती रहती हैं , बहुत बड़ी संख्या में लोग उबरे भी है ..

लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि हमें फिर खड़ा होना होगा, एक देश के तौर पर , एक समाज के तौर पर, दीमक को कीटनाशक देनी होगी, सिस्टम को मजबूत करना होगा ..

.. गलती किसकी थी ये बाद में तय कर लेंगे

 किसी भी गलती को सुधारने का पहला क़दम हैं , गलती स्वीकार करना..सिस्टम कतरा रहा हैं , हमें अहसास कराना होगा ...

हमें आगे बढ़ना होगा लेकिन उन रोते बिलखते, टूट चुके परिवारों को पीछे छोड़कर नहीं , साथ लेकर ..

सबक ये हैं 

1. जिनकी इस विभीषिका में जान गई ,उनके सही सही आंकड़े जुटाएं जाएं, उनको सूचीबद्ध करके , जिन परिवारों ने अहम सदस्य ( जिस पर परिवार निर्भर था) को खोया उनका भरण पोषण , कम से कम 2-3 साल सरकार करें, बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करें 


2. अभी भी स्वास्थ्य सेवाओं में रही खामियों को दूर करें

3. देश के बहुत से लोग मानसिक तनाव और अवसाद में हैं उनकी काउंसलिंग करें

4. वैक्सिनेशन को तीव्र गति से करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं

5 जिन परिवारों ने अपने सदस्यों को खोया है उनकी आवश्यकतानुसार मदद करें, ख़ासतौर जिन्होंने अस्पतालों में अपनी जीवन पूंजी लगा दी और अपनों को बचा भी नहीं पाएं

6. शैक्षिक क्षेत्र में बच्चों को हुए नुकसान के लिए कार्ययोजना बने

7. जिन्होंने अपनी नौकरियां खोयी है उनकी भी सुनवाई हो 


एक कर्तव्यनिष्ठ नागरिक के तौर पर हमारा भी दायित्व है कि हम मानवीय तौर पर पीड़ित लोगों के साथ खड़े हो , उनकी छोटी -छोटी मदद  देश के लिए बहुत बड़ा योगदान होगा..

आपदा में किसीकी मजबूरियों का फायदा ना उठाएं


उम्मीद हैं हम फिर खड़े होंगे , आगे बढ़ेंगे, उन लोगों के साथ, उन परिवारों के साथ जिन्होंने इस आपदा को झेला है ..


यूनाँ मिस्र रोमा, सब मिट गए जहां से,

बाकी मगर है अब तक, नामो निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन, दौर ए जहां हमारा

- अल्लामा इक़बाल

#post_covid_India

Thursday, April 29, 2021

लोकतंत्र:- सही मायने में

 वाह री लोकतन्त्र !! कहने को हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं , वो अब्राहम लिंकन वाला "जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन", पर अफ़सोस इन दिनों

This is not the democracy I have read in my school text books ,feeling cheated why only neta, journos, businessmen, courts, celebrities getting help only .

दुख होता हैं पर बोल नहीं सकते , contempt of court 😒 is this the democracy for which bhagat singh laid down his life at 24 ??😢 

लोगों ऑक्सीजन नहीं मिल रही, 🛏️ नहीं हैं, आईसीयू नहीं मिल रहे, और दवाओं तक की कमी हैं , मान लिया देश में विपदा है ..

सबसे दुखद ये है कि जजों के लिए अशोका होटल ( पांच सितारा) में 100 कमरे बुक होंगे, 

उधर मज़े से आईपीएल चल रहा हैं ,

नेता अपनी रैलियों में व्यस्त थे ,

पत्रकार अपनी दलाली खा रहे हैं ,

साहेब और उसका मोटा झोटा की आंख नहीं खुलती,🤐🤐

और मज़े की बात ये है  प्राइवेट चोपर से बड़े लोग देश छोड़कर जा रहे हैं, पढ़िए https://m.economictimes.com/magazines/panache/airfares-soar-private-jets-in-demand-rich-indians-flee-the-country-fly-to-dubai-to-escape-covid-surge/articleshow/82228187.cms

, अगर यही लोकतंत्र है तो मतलब  लोकतंत्र कोर्ट,नेता, अभिनेता, क्रिकेटर, मोटा व्यापारी और पत्रकार के लिए हैं बस ..

ट्विटर पर देखिए कैसे बड़े लोगों ने अपना कुनबा बना लिया है , बस पत्रकार, नेता, सेलेब्रिटी, उद्योगपति तुरंत मदद हो रही हैं ,

गरीब आदमी ट्विटर पर थोड़े हैं , और है भी तो सुनता कौन हैं ..

Democracy is almost dead , 

It's plutocracy 

ये लोकतंत्र हैं तो दुनिया का सबसे बड़ा झूठ हैं 😥

#Not_my_democracy


नोट : आज कोर्ट ने नाटकीय ढंग से स्वत: संज्ञान लेते हुए , दिल्ली सरकार से पूछा कि " आपको किसने कहा होटल बुक करने के लिए ?? 

और आदेश दिया कि उक्त आदेश तुरंत वापस लिया जाए, आदेश वापस ले लिया गया हैं 

#that's_my_democracy 🙏🏼

Thursday, December 10, 2020

बीजेपी_कांग्रेस_गठबंधन

 #राजस्थान_पंचायत_चुनाव 

#सब_गोलमाल_हैं_भाई_सब_गोलमाल_हैं

 राजस्थान में 21 जिलों में हुए पंचायतीराज ( जिला परिषद और पंचायत समिति) चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण बन गए क्यूंकि देश की मीडिया और आम जनता का ध्यान पूरी तरह किसान आंदोलन पर केन्द्रित था और बीजेपी ने कुछ अधिक सीटें जीत लेने की बात को किसान आंदोलन पर इसको रेफेरेंडम (जनमत संग्रह) करार दे दिया , और अपनी जीत को मीडिया के सामने  बढ़ा चढ़ाकर दिखाया,,,,,,,

लेकिन अब आता है रोचक पहलू 

चुनाव के दौरान राष्ट्रीय स्तर की बात करने वाले , अपनी पार्टी का विजन रखने वाले और पार्टी का झंडा पकड़ कर कार्यकर्ताओ को भावुक करने वाले  सारे जन प्रतिनिधि जैसे ही प्रधानी और जिला प्रमुख की बारी आई ...

अपनी अपनी सोचने लगे ...

बहुत सी पंचायत समितियों और जिला परिषदों में 

बीजेपी के कैंडिडेट कांग्रेस में भाग गए और कांग्रेस के बीजेपी में, निर्दलीय का तो कहना ही क्या ....

हद तो तब हो गई जब बीजेपी से जीते कैंडिडेट ने कांग्रेस से पर्चा भरा और कांग्रेस से जीते कैंडिडेट ने बीजेपी से ... एक जिले (नागौर) में कांग्रेस के प्रत्याशी को 7 बीजेपी वालों ने वोट दिए तो बीजेपी के प्रत्याशी को 6 कांग्रेस वालों ने

...

अब आती हैं सबसे रोचक बात  🛑एक जिला परिषद (डूंगरपुर- जहां आदिवासी पार्टी बीटीपी मजबूत हैं) और कम से कम 10 पंचायत समितियों में 

कांग्रेस और बीजेपी ने एकजुट होकर 🧑‍🤝‍🧑

तीसरी पार्टी (बीटीपी और RLP) और निर्दलीयों को पटखनी दी..🛑

अगर बीजेपी , कांग्रेस का गठबंधन है तो बीजेपी किस जीत की बात कर रही थी 🤔🤔🤔

जब कांग्रेस ,बीजेपी का गठबंधन हो सकता हैं तो पार्टी, सिंबल, कार्यकर्ता का क्या मतलब रह गया हैं 🤔🤔🤔

राजस्थान में ख़ास तौर पर ये सोचने वाली बात है ..

पिछले कुछ सालों दलबदल कानून की जो धज्जियां उड़ी हैं और राजनीति जिस स्तर पर पहुंच गई उसको देखकर लगता है , चुनाव सिर्फ़ एक दोस्ताना मैच हो गए हैं ..

सबसे बिकाऊ आदमी कोई हैं तो राजनीतिज्ञ..

चुनाव, नेता , पार्टियां सब जनता को मूर्ख बनाने के लिए बनाया गया सिस्टम हैं ताकि कुछ बोले तो लोकतंत्र का झुनझुना पकड़ा दो 😏😏

#छद्म_लोकतंत्र_झूठे_नेता

#बेबस_जनता