हमारा देश सांस्कृतिक ,आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से दो भागों में बंटा हुआ है ।भारत गांव में एवं इंडिया शहरों में रहता है। हमारे संविधान में कहा गया है 'India that is Bharat' परंतु वस्तुतः ऐसा नहीं है ।भारत और इंडिया अलग -अलग हैं ।भारत पर इंडिया शासन करता है ।भारत गुणवाचक एवं इंडिया स्थान वाचक है ।देश में 'स्थानम् प्रधानम् ' की उक्ति चरितार्थ हो रही है ।
गांव --- गांव से तात्पर्य एक निश्चित भूभाग में रहने वाली उस छोटी बस्ती से है जिसकी आधी से अधिक आबादी का जीविकोपार्जन का साधन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि है। मानव ने जब पशु पालन के साथ-साथ कृषि कार्य करना प्रारंभ किया तब गांव अस्तित्व में आए I विश्व का सबसे प्राचीनतम गांव लगभग नौ हजार वर्ष पुराना पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत का मेहरानगढ़ है ।प्राचीन समय में उसी बस्ती को गांव की मान्यता शासन द्वारा दी जाती थी जिसमें कम से कम सात जातियां निवास करती हों ऐसा नहीं होने पर बास या ढ़ाणी का दर्जा उस बस्ती को दिया जाता था ।इंग्लैंड में जब बस्ती में चर्च बन जाता था तो उसे गांव की मान्यता दे दी जाती थी । आदर्श गांव की बसावट इस तरह से होती है कि चमड़े का काम करने वाली जाति को पूर्व ,किसानों को उत्तर-पश्चिम व ब्राह्मण ,कुमावत ,दर्जी आदि को दक्षिण दिशा में बसाया जाता है ।गांव के बीच में चौक तथा चारों तरफ गोचर भूमि होती है ।बेरा(कुआँ ) व बाणियां गांव के बीच में होते हैं ।कुएँ के पास मंदिर होता है ।कृषि भूमि गांव के पश्चिमोत्तर दिशा में होती है । मैं नहीं हम की भावना वाली ग्रामीण व्यवस्था परंपरा आधारित होती है तथा उसके निवासी एक दूसरे के सुख -दुःख में भागीदार होते हैं ।प्राचीन समय में गांव एक स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर इकाई थे । गांव का कारोबार वस्तु विनिमय आधारित था । 'पंच परमेश्वर' की न्यायिक व्यवस्था थी । एक व्यक्ति हो सकता है अकेला झूठ बोल जाए परंतु गांव के सामने झूठ नहीं बोल सकता क्यों कि 'गांव राम ' माना जाता था ।गांव में व्यक्ति विशेष का दर्जा उसकी आर्थिक नहीं बल्कि सामाजिक प्रस्थिति से निर्धारित होता है ।राँबर्ट रेडफील्ड ने मैक्सिको के टोपोजलान गांव का अध्ययन कर उसे लघु समुदाय कहा तथा चार विशेषताओं का उल्लेख किया ।पहली विशिष्टता,दूसरी लघुता तीसरी समरूपता एवं चौथी आत्मनिर्भरता । बी आर चौहान ने राजस्थान के सदड़ी का अध्ययन कर कहा कि समरूपता एवं आत्मनिर्भरता भारतीय गांव पर लागू नहीं होती ।चाल्स मेटकाफ ने भारतीय गांव को आत्मनिर्भर मानते हुए ग्रामीण गणतंत्र कहा है । प्राचीन समय में गांव को जाति से भी ज्यादा महत्व दिया जाता था ।आज भी पंजाब में अपने नाम के पीछे जाति लिखते हैं। बादल, टोहरा, भिंडरवाला ,मंगेशकर आदि गांवों के नाम हैं । शेखावाटी में अधिकांश प्राचीन गांव जातियां के गोत्रों या प्रभावशाली जाति के मुखिया के नाम से बसे हुए हैं ।भारत गांवों का देश है । भारतमाता ग्रामवासिनी सुहासिनी है । सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है-
भारतमाता ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल,
धूल भरा मैला- सा आँचल,
गंगा यमुना में आँसू जल
मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी ।
राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर लिखते हैं --
'प्रतिभाएं गांवों में पैदा होती हैं । शहरों में विकसित होती हैं और एक पीढ़ी बाद नष्ट हो जाती हैं । शहरों में प्रतिभाएं पैदा नहीं होती वहां तो प्रतिभाओं की मंडियां लगती हैं ।'
कोहिनूर तो गांवों के खेतों में ही मिलते हैं ।शहरों में तो उनको तराशा जाता है। गांव-गांव में गड़े मतीरों- हीरों को तलाश कर तराशने की आवश्यकता है । गांव में 'नीलगगन के तले, धरती का प्यार पले ' ।
गांव में कितनी ईमानदारी थी इसका उदाहरण सिकंदर के समय का मिलता है ।सिकंदर जब भारत पर हमला करने की योजना बना रहा तो उसने यहां के समाज की स्थिति जानने के लिए अपने गुप्तचरों को भेजा ।गुप्तचरों ने एक गांव में देखा कि न्याय पंचायत बैठी हुई थी ।एक किसान ने अपना खेत दूसरे किसान को बेच दिया। जिस किसान ने खरीदा वह हल चला रहा था उस समय उस खेत में स्वर्ण मुद्राएं मिली ।उस किसान ने वह स्वर्ण मुद्राएं जिस किसान से खेत खरीदा था उसको ले जाकर के दी ।उसने लेने से मना कर दिया । किसान ने कहा कि मैंने तो खेत बेच दिया ।अब इसके अंदर जो कुछ भी मिलता है वह आपका है । लेने वाले ने कहा, मैंने तो खेत खरीदा था स्वर्ण मुद्राएं नहीं। अतः इस पर अधिकार आपका है ।न्याय पंचायत यह निर्णय करने के लिए बैठी थी कि स्वर्ण मुद्राएं पर अधिकार किसका है । गुप्तचरों ने जाकर के सिकंदर को कहा कि यहां का समाज बेहद ईमानदार है । यही क्यों लॉर्ड मैकाले ने 2 फरवरी ,1835 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में जो भाषण दिया उसमें वह बताता है कि मैंने उस देश की एक सिरे से दूसरे सिरे तक यात्रा कि मुझे एक भी चोर नहीं मिला। मुझे किसी ने बताया कि संस्कृत में ताला के लिए शब्द नहीं है क्योंकि उस युग में ताला था ही नहीं ।आज भी परिवर्तन के बावजूद गांव में भाईचारा कम हुआ है परंतु बिल्कुल समाप्त नहीं हुआ। गांव में कभी दंगा नहीं हो सकता । कोई व्यक्ति गांव में भूखा नहीं सो सकता ।मानव की बात तो छोड़ो गांव वाले पशुओं को भी भूखा नहीं मरने देते । पहली रोटी गाय को और आखरी रोटी कुत्ते को देने की परंपरा गांवों में रही है ।
आज से 35 साल पहले पूज्य स्वामी कृष्णानंद जी के भारतीय सेवा समाज से जुड़ी हुई इंग्लैंड के डोरसेट गांव की एक महिला कुछ दिन हमारे घर रही ।उनको जब भोजन परोसा गया तो उन्होंने मुझसे पूछा इसमें आपके घर का क्या -क्या है ?मैंने उनको जवाब दिया कि अधिकांश चीजें हमारे घर की हैं । उन्होंने त्वरित टिप्पणी की ,तब तो आप बहुत धनाढ्य व्यक्ति हैं ।
दीनबंधु छोटूराम एवं ग्राम
करों का 80 से 90% भाग किसानों से वसूला जाता है जबकि उनके ऊपर खर्च 10% किया जाता है ।
अपने लेख 'भारतीय ग्राम्य जीवन का उत्थान' में वे लिखते हैं -
'भारत में ग्रामीण जीवन का एक और दोषपूर्ण पहलू है, अकेलापन अलग-थलग पड़ा रहना । ....वस्तुतः अंधेरे में डूबा हुआ गांव भारत के जगमगाते जागृत- भाग के प्रति उतना ही उदासीन बना हुआ है जितना कि पिछला(जगमगाता शहर ) पहले वाले (अन्धेरे में डूबे गांव)के प्रति! अर्थात न तो शहर को गांव की सुधि है ,न गांव को शहर की । एक( गांव )आत्म-विलगित है तो दूसरा आत्म केंद्रित ।एक आपा खोऊ है तो दूसरा आपा पोषी ।.... गांवों में ऐसा कोई साझे का महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है जो गांवों को परस्पर जोड़ सके। असल बात यह है कि वे ( गांव) एक अवर्णित संपूर्णता या सभ्यता में बिखरी हीन इकाइयां बने खड़े हैं और एकता की संभावना का विचार उनकी चेतना में कभी उठा नहीं ।....ग्रामीणों में गांव भक्ति और परस्पर सहयोग की भावना का भी अभाव है ।
किसी भी राष्ट्रवादी भारतीय के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए ।इस परिस्थिति का अंत करने का दायित्व शिक्षित भारतीयों पर आता है। अब तक इस जिम्मेदारी को या तो स्वीकार ही नहीं किया गया या टाला जाता रहा है। इस विषय पर शीघ्र ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है । इसका सर्वाधिक प्रभावशाली उपाय मौलिक ग्रामीण शिक्षा को सबकी पहुंच के भीतर लाना है और गांव की जनता का बौद्धिक स्तर पर्याप्त ऊंचाई तक उठाना है । यदि इस दिशा में शीघ्रकारी एवं गंभीर प्रयास किए जाएं तो आशा है भारत का गांव अविलंब देश के राष्ट्रीय स्रोतों की अमूल्य धरोहर बन जाएगा ।'
गांधी जी और गांव
स्वदेशी की भावना का अर्थ है हमारी वह भावना जो हमें दूर को छोड़कर अपने समीपवर्ती प्रदेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है । यह धर्म, राजनीति और अर्थ सभी क्षेत्रों में हो सकता है अगर हम अर्थ के क्षेत्र की बात करें तो मुझे अपने पड़ोसियों द्वारा बनाई गई वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए और उद्योगों की कमियां दूर करके उन्हें ज्यादा संपूर्ण और सक्षम बनाकर उनकी सेवा करनी चाहिए ।अगर हम स्वदेशी के सिद्धांत का पालन करें तो हमारा यह कर्तव्य होगा कि हम उन बेरोजगार पड़ोसियों को ढूंढे जो हमारी आवश्यकता की वस्तुएं हमें दे सकते हों और यदि वह इन वस्तुओं को बनाना नहीं जानते हों तो हम उन्हें उसकी प्रक्रिया सिखाएं। ऐसा हो तो भारत का हर एक गांव लगभग एक स्वआश्रित और स्वयंपूर्ण इकाई बन जाएगा ।
चौधरी चरणसिंह और गांव
आजाद भारत में अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए उनमें चौधरी चरण सिंह न केवल जन्म स्थान बल्कि आचार- विचार से ग्रामीण भारत का प्रतिनिधित्व करते थे ।वह शहर में बसते थे तब भी उनके अंदर गांव बसता था । उनका कथन था -ग्रामीण भारत ही असली भारत है । उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि जब तक गांव का विकास नहीं होगा तब तक भारत का विकास नहीं हो सकता। सन 1982 में लिखे अपने एक लेख में उन्होंने लिखा था कि ' गरीबी से बचकर समृद्धि की ओर बढ़ने का एकमात्र मार्ग गांव तथा खेतों से होकर गुजरता है।'
उसी लेख में वे आगे लिखते हैं हमें ग्रामीण क्षेत्रों को प्राथमिकता तथा कृषि को केंद्र बनाकर कुटीर उद्योग तथा कृषि की ओर वापस लौटना होगा ।उनके बारे में पश्चिमी प्रेस ने लिखा था -'भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है ।उसकी रूपरेखा भारतीय नेताओं में सिर्फ चरणसिंह के पास है '।गांव की माटी को महिमामंडित करने वाले वे भारत माता के महान धरती पुत्र थे। वे कहा करते थे- किसान की एक आंख खेत की मेड़ पर और दूसरी आंख शासन पर रहनी चाहिए ।जिन किसानों को दिल्ली में स्थान दिलवाने के लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे उन्हीं किसानों ने उनको अपने दिल में स्थान दिया तथा उनके निधन के पश्चात संघर्ष करके दिल्ली में उनको स्थान दिलवाया । व्यक्ति नश्वर और विचार अमर होते हैं ।चौधरी चरणसिंह व्यक्ति नहीं विचार थे। समय -शैल पर अमित 'चरण चिन्ह' अंकित कर वे अमर हो गए ।जब तक सूरज चांद रहेगा तब तक खेत- रेत के कण- कण में नूरपुर का नूर चमकता रहेगा । उनकी याद में हर युग में कोई न कोई महेंद्रसिंह टिकैत रोता रहेगा । प्रख्यात विचारक एवं पत्रकार उदयन शर्मा ने लिखा है-' चौधरी साहब जैसा किसान नेता भारत में अब कभी नहीं होगा' ।
कहना चाहूंगा-
असली भारत गांव में ,अन्नदाता किसान ।
राज-काज में कर गए ,चरणसिंह पहचान ।।
उनके निधन पर राजीव गांधी ने कहा था -वे एक महान देशभक्त व ग्रामीण विकास के प्रबल समर्थक थे ।
चौधरी चरणसिंह गांव की जीती जागती तस्वीर थे - अटल बिहारी बाजपेई ।
चौधरी साहब ने गांव की आधार शक्ति और संगठन के जरिए असली भारत ग्रामीण भारत को एक निश्चित दिशा दी थी । -दि इकोनामिक टाइम्स चौधरी
चरणसिंह ग्रामीण भारत का सर्वोत्कृष्ट उत्पाद थे वे सर्वत्र किसानों में गांधी के मानिंद व्यक्तित्व रहे। जिनका विश्वास था कि देश का विकास गांव के आर्थिक और सामाजिक विकास पर निर्भर करता है ।विशेषकर किसानों और ग्राम आधारित उद्योग धंधों पर---दि हिन्दुस्तान टाइम्स ।
भारतीय खेत-रेत जगा , पढ़ा सत्यार्थ पाठ ।
चिर निद्रा में सो गए, दिल्ली किसान घाट ।।
आज उनकी पुण्य तिथि है ।उन्हें कोटि-कोटि नमन ।
आजादी से पूर्व एवं बाद की गांवों की स्थिति में अंतर आया है परंतु आज भी गांव सरकारी नीतियों में उपेक्षित हैं ।
किसी कवि ने कहा है
पानी नहीं है गांव में ,
जलें नीम की छांव में ।
बाकी सब लाचारी है,
बस बेड़ी नहीं पांव में ।।
उलझकर रह गई जो फाइलों के जाल में ,
गाँव तक रोशनी पहुंचेगी कितने साल में ?
गांव की स्थिति में कोई मौलिक अंतर नहीं आया है ।गांव में जो परिवार विकसित होते हैं वह छोड़कर शहर में आ जाते हैं ।अतः गांव वहीं के वहीं रह जाते हैं ।
ग्रामीण जीवन की व्यथा -कथा श्रीलाल शुक्ल ने अपने सुप्रसिद्ध उपन्यास' राग दरबारी 'में लिखी है ।
उस उपन्यास का परिचय देते हुए वे लिखते हैं -' इसका संबंध एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे हुए गांव की जिंदगी से है जो इतने वर्षों की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के सामने घिसट रही है ।'उस उपन्यास में बड़े रोचक ढंग से सरकारी तंत्र द्वारा ग्रामीण समाज को लूटने का चित्रण किया गया है ।
शहर-
हर दृष्टि से गांव का उल्टा शहर होता है यह कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।अज्ञेय की एक कविता है
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया ।
एक बात पूछूँ - (उत्तर दोगे ?)
तब कैसे सीखा डँसना -विष कहाँ पाया ?
हमारे एक रिश्तेदार के पोते ने अपने गांव के स्कूल से बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण कर शहर में अग्निशमन का प्रशिक्षण प्राप्त करने लगा । उसके दादा ने पूछा - आजकल शहर में क्या पढ़ाई कर रहे हो ? पोते ने कहा - आग बुझाने की ट्रेनिंग ले रहा हूं -
दादा ने कहा- शहर में तो आग लगाने की ट्रेनिंग दी जाती है । अतः बुझाने की बात तो छोड़ो, लगाना मत सीख जाना ।
गांव से शहर में अनाज-दूध जाता है और चुटकी-गुटकी आती है । हंसता हुआ मनुष्य जाता है और रोता हुआ आता है ।
हर दृष्टि से कई गांवों को मारकर एक शहर पैदा होता है । हर शहर गांवों की राख पर बैठा हैं । कई वर्षों पहले पढ़ा था-' गांव से उखड़े हुए लोगों को शहर पनाह देता है ।' गांव से गया हुआ व्यक्ति शहर में जाकर शहरी संस्कृति को अपना लेता है ।वह हर दृष्टि से शहरी हो जाता है । कहावत है- साँभर पड़ियो-सो लूण अर्थात सांभर की झील में अगर गुड़ डालोगे तो उसका नमक ही बनेगा ।
अदम गोंडवी का एक शेर है-
यूं खुद की लाश अपने कांधे पर उठाए हैं
ऐ शहर के वाशिंदों ! हम गांव से आए हैं ।
इसी तरह मुनव्वर राणा ने लिखा है -
तुम्हारे शहर में मय्यत को सब कांधा नहीं देते,
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं।
गांवों से शहरों में पलायन उत्तरोत्तर बढ़ रहा है ।हमारे देश में सन् 1901 में शहरी आबादी 11 .4 % थी वह 2017 में बढ़कर 34% हो गई ।इस का मुख्य कारण रोजी -रोटी की तलाश में मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्ग के लोग शहर जाते हैं। संपन्न लोग गांव में सुविधाओं के अभाव के कारण शहर में जाते हैं। शहर में पलायन का एक कारण यह भी है कि वहां व्यक्ति की प्रस्थिति का आकलन अर्थ आधारित होता है जबकि गांव में व्यक्ति विशेष के परिवार का सात पीढ़ियों का लेखा-जोखा रखा जाता है ।
गांव बनाम शहर
गांव में कुआं है, शहर में नल -बल आताउसी कुएं का जल है ।गांव में लता की जड़ है शहर में उसी का फल है ।गांव में ह्रदय है ।शहर में अक्कल है। गांव में नाम है। शहर में नंबर है । नाम तो कभी बदनाम भी हो सकता है परंतु नंबर कभी बदनाम नहीं होता। गांव महाकाव्य है जिसके सभी पात्र एक दूसरे से जुड़े हुए रहते हैं। शहर अखबार है। अखबार में जिस तरह से एक खबर का दूसरी खबर से कोई संबंध नहीं रहता उसी तरह शहर में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से कोई संबंध नहीं रहता है । हिंदी में गांव में रहने वाले को गँवार, नगर में रहने वाले को नागरिक कहते हैं ।आप हिंदी के किसी भी शब्दकोश में देखिए गँवार का दूसरा अर्थ मूर्ख, असभ्य लिखा हुआ है ।नागरिक का दूसरा अर्थ शिष्ट लिखा हुआ है ।शासकीय दृष्टि से भी नागरिकता अधिकार कानून है। मुझे घोर आश्चर्य के साथ गुस्सा आ रहा है कि हमारी सरकारें, तथाकथित बुद्धिजीवी गांव वालों को किस नजरिए से देखते हैं ।दरअसल गांव बनाम शहर , भारत बनाम इंडिया है ।भारतीय संस्कृति के गांव ,गाय ,गंगा व गायत्री चार आधार हैं ।प्राचीन नामों की व्युत्पत्ति इनसे संबंधित है ।पहली वर्षा से अगली पहली वर्षा की अवधि को वर्ष कहा गया ।गोष्ठी, गोपनीय ,गोखा आदि गाय से संबंधित हैं ।धेनुवान से ही धनवान बना है ।
आधुनिक गांव
आज के गांव बिल्कुल बदल गए हैं ।वे सांस्कृतिक दृष्टि से छोटे शहर हो गए । प्रेम- भाईचारा अब गांवों में नहीं रहा । पहले गांव एक इकाई होता था अब दहाई -सैकड़ा हो गया ।पहले राम के पैर बिवाई फटती थी तो श्याम के भी दर्द होता था ।
कहना चाहूंगा
दीवारों के कान अब,
दौलत से पहचान ।
प्याऊ बदले गाँव में,
दारू की दुकान ।।
वर्षों पहले राजस्थानी में एक गीत लिखा था-
खोखा -सांगर खांवता ,खेजड़लां री छांव ।
लूखमिंचणी खेलता,कठै गया बै गांव ।।
आओ गांव चलें से तात्पर्य गांव की प्राचीन संस्कृति की ओर चलने-से है। गांव का अतीत , रीत , प्रीत और संगीत है ।जहां हर एक दूसरे का मन मीत है । आदर्श विश्व की कल्पना इसीलिए 'ग्लोबल विलेज 'के रूप में की गई है । गांव शहरों से पुराने हैं । गांव का अपना भूगोल - इतिहास है । आदरणीय विशन सिंह जी शेखावत ने 40 वर्ष पहले राजस्थान पत्रिका में 'आओ गांव चलें' शीर्षक से एक लेखमाला शुरू की थी । वह बड़ा लोकप्रिय हुआ । आदरणीय घनश्याम जी तिवाड़ी जब राजस्थान के शिक्षा मंत्री थे तब उन्होंने राजस्थान के गांवों का इतिहास लिखने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना 'आपणी धरती ,आपणा लोग । आपणी खेजड़ी ,आपणां फोग' बनाई । कुछ समय पश्चात सत्ता परिवर्तन होने के कारण वह आगे नहीं बढ़ पाई । आज स्थिति यह है कि विद्यार्थी राजस्थान और भारत का तो इतिहास जानते हैं परंतु अपने गांव का इतिहास नहीं जानते ।गांव में हमारी जड़ें हैं संकट के समय अब भी गांव ही याद आता है । कोरोना तालाबंदी के कारण शहरों में मध्यम वर्ग एवं मजदूरों के रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया तो पूरा का पूरा परिवार सैकड़ों किलोमीटर दूर भूखा- प्यासा गांव की ओर पैदल ही चल पड़ा क्योंकि गांव की मिट्टी की सौंधी महक में गुरुत्वाकर्षण है । मैंने उस समय लिखा था-
मजदूर मजबूर हुए ,
दूर तक नहीं छांव ।
हारे नंगे पांव जब,
पेट चल पड़ा गांव ।।
आज भी मन नहीं पेट गांव से शहर में जाता है । देखो गांव से जुड़ा कैसा नाता है । वहां भी 'मारू' का मन गुनगुनाता है -
देस नै चालो जी ढ़ोला मन भटके ,काकड़ी मतीरा खास्यां खूब डट के ।...
सेठ प्रदेश चले गये उनकी उदास हवेलियां कह रही हैं -
सेठ बस कलकत्ते डिहूगढ़ आसाम ,
जाकर ठाड़े बैठिया ,काटें उम्र तमाम ।
कुण सूं मुजरो करें हवेलियां बरसां मिलें न राम ,
बाटड़ली जोवे आवण री,गोखे बैठी शाम ।।
विडंबना देखिए कि गांव ,शहर वालों का पेट-पेटा व पेटी भरता है और गांव वाले अपना पेट भरने के लिए शहर जाते हैं । इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है । चौधरी चरण सिंह कहा करते थे गांव में कुटीर उद्योग प्रारंभ करने की आवश्यकता है ताकि गांव वालों को वहीं रोजगार मिल सके। कृषि के प्रसंस्करण(By Product ) गांव में तैयार करने की आवश्यकता है ।आज चीन का उदाहरण सामने है । उसने बुनियादी ढांचे पर अपनी जीडीपी का 9% खर्च किया । इससे गांव में आर्थिक संभावनाओं के द्वार खुल गए। । गांव से दूध शहरों में जाता है। वहां उसके रसगुल्ले या अन्य मिठाई बनाई जाती है । यदि गांव में ही रसगुल्ले की फैक्ट्री खोल ली जाए तो वहां रोजगार भी सृजित होगा तथा गांव का दूध भी गांव में बिक जाएगा ।चौमूं के पास चिथवाडी़ गांव इसका आदर्श उदाहरण है जहां घर-घर में दुग्ध उद्योग लगे हुए हैं । गांव में विशेषीकृत सब्जी बाजार विकसित करने की आवश्यकता है ।कोटपूतली के आसपास के बड़े गांवों में अलग-अलग तरह की सब्जी विशेष की मंडियां हैं । दिल्ली से व्यापारी उन गांवों से ट्रक भर कर ले जाते हैं ।सीकर- रशीदपुरा के आसपास प्याज खूब होता है । प्याज के भंडारण की समुचित व्यवस्था किसान के पास नहीं होने के कारण प्याज के भाव गिर जाने पर वह किसानों को खूब रुलाता है। मुझे एक प्रगतिशील किसान ने बताया कि शेखावाटी का प्याज मीठा होता है परंतु वह अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता ।अतः इसका पाउडर बनाकर खाड़ी देशों में भेजा जाए तो किसानों को अच्छे दाम मिल सकते हैं । पाउडर लगाने वाली फैक्ट्री पर अधिक खर्चा भी नहीं आता । सरसों का तेल निकालने की घाणी गांव में लगाई जा सकती है । कहने का तात्पर्य यह है कि हम गांव में स्थानीय मांग आपूर्ति और कच्चे माल की उपलब्धता को देखते हुए कुटीर उद्योग लगाने पर गांवों का कायाकल्प हो सकता है ।
रहना नहीं, शहर बिराना है
कोरोना महामारी के बाद पूरे विश्व में सोच बदल रहा है। अब पलायन शहरों से गांव की ओर होगा। इसी से देश-दुनिया का भला है । जिस तरह प्रतिभाएं गांवों में पैदा होती हैं और महानगरों में जाकर नष्ट होती हैं उसी तरह महामारियां महानगरों में पैदा होती हैं और गांवों में जाकर नष्ट होती हैं । अब कोविड महामारी गांवों में फैलने लगी है । मैं, इसे अच्छा मानता हूं । इस महामारी का अभी तक कोई इलाज नहीं है ।जिन लोगों का रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी है उन लोगों पर यह बीमारी कोई असर नहीं कर सकती । गांव में बच्चे मिट्टी में खेलते ही नहीं चुपके-चुपके खाते भी हैं ।देसी रहन-सहन व खान-पान है ।
हवा यहां की दवा है ।कोरोना का संक्रमण गांवों में होगा तो इससे 'हर्ड इम्यूनिटी ' विकसित हो जाएगी ।
जमाना करवट बदल रहा है ।
मेरी बात याद रखना विश्व स्तर पर शहर से गांव की ओर अब पलायन शुरू होगा ।
एक फिल्मी गाने की पैरोडी के रूप में कहना चाहूंगा-
आ लौट के आजा मेरे मीत !तुझे गांव बुलाते हैं ।
नीम की छांव तले नींदड़ली सुनहरे सपने आते हैं ।।
मैंने शहर में जो देखा -
दूजा सुख देख दिल जलें ,
आस्तीन के सांप विष उगलें ।
लालच झट अपनी बात टलें,
दूषण -कसन खरदूषण खलें ।
छोड़ अगर -मगर नगर निकलें ,
'एक बार'आओ गांव चलें ।
अंत में कहना चाहूंगा-
ग्रामीण गण को समझाना है,
करवट बदल रहा जमाना है ।
रहना नहीं, शहर बिराना है ,
हमको' अब छाँव गाँव आना है ।।